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हिरन / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

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वे बेख़बर थे
हवा में तैरते चौकड़ी भरते
                       गुज़र रहे थे

एक दो तीन चार पाँच...
हाँ, पाँचवाँ उस झुण्ड में सबसे ख़ूबसूरत था
                          शिकारी आँखों के लिए

एक गोली दगी
उसकी कोख में धाँय !

वह रुका
जैसे समय की गति रुक गई हो

उसने अपने भागते हुए साथियों की ओर देखा
जैसे तड़पता वर्तमान
भविष्य की ओर देखता हो

वह सिकुड़ा
धीरे-धीरे सिकुड़ता गया
और फिर धरती की गोद में
फैलकर सहज हो गया
                      निस्पन्द।

उसकी बड़ी-बड़ी आँखें !
भय, पीड़ा, मोह और जिजीविषा
                          में डबडबाई हुई आँखें !

वे अपने हत्यारे से पूछना चाहती थीं
                                  कि क्यों ?