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हे नारि सुनह / कालीकान्त झा ‘बूच’

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हे नारि सुनह सुकुमारि सुनह
कहि रहल छिय' किछु आन बात
तकरों तोँ कान पसारि सुनह
सतयुग मे हम नेना भुटका
त्रेता मे ब्रह्मक आचारी
द्वापर मे ज्ञानक अहंकार
कलि मे छल भक्तिक लाचारी
सभ झूठ फूसि केर दम्भ देवि
जँ तोँही अनचिन्हार सुनह
तोरे मे अबलम्ब अम्ब
बनबैत छलहुँ हम अपन कोन !
तोँ वृत्त बनलि सगरो बेढलि
हमरा छल केवल अंश मोन
हम आब कोना बनबह पतंग
तोँ दीपशिखा केँ वारि सुनह
कहबैत रहलि तोँ नरक आगि -
तोरे सँ सरस सिनेह बनल
चुम्बन सँ विज्ञानक आँगन
थापर सँ संयम गेह बनल
तोहर कोर मे स्वर्ग सजल
तद्यपि हे दोषक द्वारि सुनह
हे निर्गुण ब्रह्मक शांति सुनह
हे सगुणक अनुपम क्रांति सुनह
हे भक्ति जनक सुंदरि तारा
हे असुरमोहिनी भ्रान्ति सुनह
ककरा सँ पौलह दिव्य शक्ति
हे कैटभारि त्रिपुरारि सुनह