हे मेरी तमहारिणी : तीसरा अवतरण / प्रेमचन्द गांधी
तुम्हारी मुस्कुराहटों की बारिश में
भीग-भीग जाता हूँ मैं
हे सावन में जन्मी
परमप्रिया
तमहारिणी...
मैं उससे कभी अलग नहीं होता, उसका साथ मेरी देह की जीवनदायी ऊष्मा की तरह हमेशा मेरे भीतर -- मेरे साथ रहता है। जीवन में ही नहीं, बल्कि चेतना के तमाम कोने-अन्तरों में उसकी मौजूदगी मुझे हर वक़्त कविता के नए-नए रूपाकार देती रहती है। ऐसा सहज प्रेम-सान्निध्य ही इन कविताओं को एक अलग क़िस्म की आत्मीयता देता है। यह एक ऐसी कविता है जो शायद मैं ज़िन्दगी-भर भी लिखता रहूँ तो भी ख़त्म नहीं होगी, और इसे अब निरन्तर इसी तरह लिखने की कामना है। इसलिए अब यह तीसरा अवतरण इस शृंखला के प्रथम प्रकाशन के एक बरस पूरा होने पर प्रस्तुत है।
1.
साहचर्य की सुख-सेज पर लेटे हुए
दो देह
एक प्राण हैं हम
प्रणय की रजाई के नीचे
चुम्बनों की चादर ओढ़े
थरथराती है देह
एक बार फिर
अपने वजूद का कम्बल फैला दो
जाड़ा बड़ा कड़ा पड़ा है
तमहारिणी...
2
तेरे घर में
तुझसे लिपटकर लगा
अपना तो हो गया
कुम्भ-स्नान
हे मेरी तमहारिणी...
3
दिल में रखने के लिए तो जगह बहुत है लेकिन
घर में रखने के खयाल से ही क्यों डर लगता है
4
तेरे साथ बिताए लम्हों की
यादों के अलाव में गरमाते हुए
जेहन में चमकती है
तुम्हारी वो मुस्कुराती तस्वीरें
तुम हँसती हो
जैसे चमकती हैं अलाव में
आग की तहरीरें
ह्रदय में धधकती
अग्निरेखा हो तुम
हे मेरी तमहारिणी !!!
5
मैं पानी हूँ
तुम नदी
दोनों
गिरते
चलते
मिलते हैं
जीवन-प्रपात में...
6
हम कवि सब
अपनी पत्नियों के ऋणी हैं
वे ही हमारी तमहारिणी हैं
उनके बिना हम साधारण
सदस्य कार्यकारिणी हैं
काश ! तुम मेरी पत्नी होती
तो ठीक से जान पाती
कितना मुश्किल है
एक कवि की पत्नी होना
हे मेरी तमहारिणी...
7
तेरा नाम लेके पी रहा हूँ
मैं नौ लौंग का पानी
पूरा भरोसा है मुझको
ना बहेगा नाक से पानी
ज़ुकाम हो या फिर हो
कोई हारी-बीमारी
मुझे ठीक कर देती
तेरी प्यारी तीमारदारी
ओ मेरी तमहारिणी...
8
जा तेरे सपनों में ओले गिरें...
मैं अकेला ही क्यूँ तापूँ
यादों का अलाव...
9
कमाल तेरे हाथ
मक्की की रोटी और
बथुए का साग
...
वाह रे प्रेम तेरे भाग
दिल बाग-म-बाग
...
अपना प्यार
जीवन राग
हे मेरी तमहारिणी..
10
जाड़ों की सुबह के
सूरज की तरह
उम्र की सीढि़याँ चढ़ती हुईं तुम
कितनी प्यारी लगती हो
हे मेरी तमहारिणी...
11
नया तो क्या है ज़िन्दगी में
सिवा तेरी आँखों की
तारिकाओं जैसी किरणों की रोशनी
और उषा जैसी जगाती हुई
अपलक दृष्टि के
तुम्हारी मुस्कुराहटों के निर्झर के
ख़ुद को कहता हूँ मुबारक
फिर दुनिया कहेगी
तेरी आँखें मुझे मुबारक...
12
तुम जब हँसती हो तो
बारिश होने लगती है
जब हँस के बोलती हो तो
गूँजने लगता है बूंदों का संगीत
देखो ये अरावली की पहाडि़याँ नहीं
तुम्हारी देह-धरा है
प्रेम की बरखा में भीगती हुई
हे मेरी तमहारिणी...
13
सुबह जो हालत देखी
तेरे-मेरे कपड़ों की
रात का तूफ़ान याद आया
हम तुम ऐसे लेटे थे जैसे
पूनम के बाद की सुबह
साहिल के किनारे
धूप सेंकता
कछुए का एक जोड़ा
प्रिये तमहारिणी
14.
किसी रविवार की सुबह
हम साथ-साथ जागें
और सोच में पड़ जाएँ कि
वो कौनसे शनिवार की शाम थी
जब हम मिले थे पहली बार
और बेख़ौफ़ गुज़ार दी हमने
एक लम्बी रात साथ-साथ
ज़िन्दगी की तरह
तमहारिणी...
15.
बजा फ़रमा गये हैं फ़ैज़
दर्द आएगा दबे पाँव
लेकिन
तेरी निग़ाहों के सायबान में
बैठा देख मुझे
दुबक जाएगा
कोने वाले खम्भे के पास
खिसियानी बिल्ली की तरह
जानती हो ना तमहारिणी ...
16.
मेरा इतना ख़याल रखती हो
कभी हरा कुरता तो कभी हरी कमीज़
तोहफ़े में पहना देती हो
सुबह-शाम हरी-कच्च अमियों का पना पिलाती हो
फिर सत्तू का तो कहना ही क्या
और अब यह हरी चादर से ढँकी हुई बालकनी
मेरे साथ पौधों को भी
तुम्हारे प्रेम की स्नेहिल हरियल छाया देती हुई
मेरी आँखों में छाया ये हरा उजियारा
नेह की बूँदों में टपकता है
मोतियों की इस टपटप को
सुनो प्रिये तमहारिणी...
17.
मेरी आँख में
जाने कहाँ से आ फँसा था
एक मामूली-सा तिनका
तुमने अपनी जीभ को
यूं लम्बा कर फिराया आँख में कि
आँखों से टपकता है
शहद अब तक
तमहारिणी!!!
18.
कितना गहरा होता है स्मृतियों का रंग
सब कुछ जैसे नीले अम्बर का अंश हो गया
इसी नील गगन के नीचे आओ
फिर से कहीं मिलें
तुम्हारी ही राह देख रही हैं अंखियाँ...
19.
अरे बाsssरह फरवरी
याद है वह शर्वरी
तेरा ही दिन था री फरवरी
आसमान में बिजली चमकी
बड़ी जोर की बरखा बरसी
घरों की बिजली गुल हुई
इक कहानी कुल हुई
अरी मेरी प्यारी फरवरी
फिर से लौटा दे वह शर्वरी
सुन रही हो ना
हे मेरी तमहारिणी
20.
मैं जैसे उसी सोफे पर बैठा हूँ एक कोने में
और दूसरे सिरे पर तुम
खिड़की से अभी छनकर आ रहा है
साँझ का पीला उजाला
हम एक-दूजे को ऐसे देखते हैं
जैसे कई जन्मों के बाद मिले हों
तुम्हारी नाक की लौंग में जो चमकता है सुनहरा रंग
उसे आँखों में भर लेता हूँ मैं और
तुम मेरी चोरी पकड़ लेती हो
मेरे आने की जल्दबाजी में
तुमसे गफ़लत में पानी में मिल गई
हल्दी अभी भी गीली है
उसे गीला ही रहने दो
किसी दिन अपने हाथों से
इसका उबटन लगाऊँगा
तुम्हारे प्रौढ़-परिपक्व कपोलों पर...