हे विहंगिनी / भाग 5 / कुमुद बंसल
41
धा धिन धा-धा,
पैंजनियाँ पहने
नाचे पवन,
दादुर मुख खोले,
मेघ अभिनन्दन।
42
वर्षा की बूँदे
टप-टप टपकें
भरी तलैया,
नहीं थमती बूँदे
नाच ता-ता थइया।
43
आषाढ़ संध्या
नीलांजन मेघ की
घोषणा हुई,
सनसनाहट में
गगरी फूट गयी।
44
गहन-घन
उन्हें तो बरसना
जो ले ले, ले ले
पृथ्वी उन्हें स्वीकारे
चट्टान फटकारे।
45
ठण्डी-ठण्डी है
गुलमुहर छाँह,
सपने पले
रतनारा उन्माद
बिखरा छाँह तले।
46
अमलतास
पीत है हर शाख,
झूमें गगन,
झूमर-से सुमन
अंग-अंग प्रसन्न।
47
चान्दी से फूल
खिलते महकते,
थे चहकते
उस ही वृक्ष पर,
जो बूढ़ा हुआ अब।
48
झुलस गया
कचनार का अंग,
सिकुड़ गई
हर कोमल कली,
अग्नि ताण्डव जली...
49
जामुन फल
जामुन छाँह तले
शतधा खाए,
अश्रुधार विदाई
दे दी पितृ-वृक्ष को।
50
बरगद के
समक्ष सीना तान,
कहती दुर्वा,
जो छाया न रोकती
होती तुझ् समान।