भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे विहंगिनी / भाग 6 / कुमुद बंसल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

51
जो आई आँधी
गर्व फूले वट की
झुकी कमान,
बची लचीली दुर्वा
जो थी निर्भिमान।

52
मैं हूँ मोहित
फगुनाई फसलें
बौराये वृक्ष
निंदियारे नयन
भिनसारे सपन।

53
श्वेताम्बरी-सी
शबनम छिपी है
सकुचाती-सी,
झीना पुष्प-संसार
मीठा-सा अभिसार।

54
रात की रानी
मादकता फैलाये,
पखेरू मन
गीत गुनगुनाये,
पंख हौले हिलाये।

55
बाहें फैलाये
मोटी-सी आँखों वाला
अकड़ खड़ा,
खेत का रखवाला
भुस भरा पुतला।

56
मन्द-मलय
अनेक कुवलय,
वीचि विलास,
अली छू रहा कली,
करता परिहास।

57
पुष्प जानता
मुरझाना है उसे,
सुरभि देता,
नहीं चिन्ता संध्या की,
रहता मुस्कुराता।

58
तम बिखरा,
फैलती कण-कण
मोगरा गन्ध,
स्मित हास्य चाँद का,
रचती प्यारी सृष्टि।

59
प्रेयसि भोर
आज है श्यामांगिनी,
प्रसून-हास,
पावस नर्तन ही
है अमर उल्लास।

60
पंखुड़ी हुई
है मकरन्दमयी,
मुकुलित हो
शेफालिका कली,
लजाई-सी झरे।