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हैं बाऊजी बूढ़े / कुमार रवींद्र

माँ को है लकवा
हैं बाऊजी बूढ़े
घर के हर कोने में ढेरों हैं कूड़े
 
छूती है छत कच्ची
लोनी दीवारें
दरवाजे-खिड़की से
झाँकती दरारें
 
बेटों की नेकटाई - बहुओं के जूड़े
 
पानी बिन सूख रही
गमले की तुलसी
ढह रही बरांडे में
दादा की कुरसी
 
भीग रहे आँगन में पड़े हुए मूढे
 
काँपते कैलेण्डर पर
पिछली तारीख़ें
बता रहीं -कितनी हैं
बुढ़ा रहीं लीकें
 
अगले दिन-हफ़्तों को कौन यहाँ ढूँढ़े