भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हैं भई चाचू हरखूराम / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
सब कहते हैं बड़े मसखरे
हैं भई चाचू हरखूराम।
पर मुझको तो प्यारे लगते
हैं भई चाचू हरखूराम।
हम उछलें तो संग उछलते
हैं भई चाचू हरखूराम।
हम रोएं तो खूब हंसाते
हैं भई चाचू हरखूराम।
पेड़ों पर चढ़ जाते झटपट
हैं भई चाचू हरखूराम।
फल तोड़ कर हमें खिलाते
हैं भई चाचू हरखूराम।
हमें नहलाते नहर पे जाकर
हैं भई चाचू हरखूराम।
लगा के साबुन झाग बनाते
हैं भई चाचू हरखूराम।
बड़े मज़े के दही बड़ों से
हैं भई चाचू हरखूराम।
दो दर्जन केले खा जाते
हैं भई चाचू हरखूराम।