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हो सके तो / सुषमा गुप्ता

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गहन अंधेरे में
बहुत देर ज़द्दोज़हद की
पर सब
निर्जीव होने की हद तक शांत

उसने आँखों को
तारे बनाकर
रात की चौखट पर टांग
रखा था
उम्मीद की
एक घंटी लगाई थी
बिल्कुल बीचों-बीच
और कान
निकाल कर
दहलीज पर रख दिए थे
कि सुन सकें
छोटी-सी भी सरसराहट
उसके आने की।

पर हवा को उससे
कोई पुराना हिसाब
करना था
उसने पत्तों को
नृत्य के लिए उकसाया
बालकनी में बँधी
चांदनी को
ज़ोर से जमीं
पर पटक डाला
और रास्ते की धूल से
हाथ झाड़ लिये।

हवा ने मनमानी की
तो
तारे पथराई—सी हालत में
पत्तों का
नृत्य निगलते रहे
दहलीज पर चिपके कान
अपनी शक्ति से
क्षीण हो
पायदान बन गए
उम्मीद की घंटी
दर्द से
कराह कर
पहले ही
थक चुकी थी

उसके सारे हिस्से
अलग-थलग
पड़े थे। ।
पर
समेटने की
ताकत न थी उसमें
हाथ में पकड़ा खत
पहरों से
फड़फड़ा रहा था

'हो सके तो मुझे माफ कर देना'