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हौले-हौले, धीरे-धीरे / माखनलाल चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
तुम ठहरे, पर समय न ठहरा,
विधि की अंगुलियों की रचना, तोड़ चला यह गूंगा, बहरा।
घनश्याम के रूप पधारे हौले-हौले, धीरे-धीरे,
मन में भर आई कालिन्दी झरती बहती गहरे-गहरे।
तुम बोले, तुम खीझे रीझे, तुम दीखे अनदीखे भाये,
आँखें झपक-झपक अनुरागीं, लगा कि जैसे तुम कब आये?
स्वर की धारा से लिपटी जब गगन-गामिनी शशि की धारा,
उलझ गया मैं उन बोलों में, मैंने तुझको नहीं सँवारा।
चन्दन, चरण, आरती, पूजा,
कुछ भी हाय न कर पाया मैं,
तुम किरणों पर बैठ चल दिये,
किरणों में ही भरमाया मैं!
पा कर खो देने का मन पर कितना लिखा विस्मरण गहरा!
विधि की अंगुलियों की रचना, तोड़ चला यह गूंगा बहरा।
तुम ठहरे, पर समय न ठहरा,
रचनाकाल: खण्डवा, अप्रैल-१९५६