भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
298 / हीर / वारिस शाह
Kavita Kosh से
हमी वडे फकीर सत पीढ़ीए हां रसम जग दा हमी जानने हां
कंद मूल उजाड़ विच खायके ते बनवास लै के मौज मानने हां
नगर विच ना आतमा परचदा ए उदयान<ref>बाग या जंगल</ref> बह के तम्बू तानने हां
वारस तीरथ जोग बैराग होवे रूप तिनां दा हमीं पछानने हां
शब्दार्थ
<references/>