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30 / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
वे जो हैं-
सुबह की सीध देते हैं
अंधेरी रात को,
वे जो औंधे-
बिखरे-से लगते हमें
पर एक ही आंगन खड़े हैं पांव थामे,
वे जो दूर से
ओछे लगते हमें
मगर परछाइयां उनकी
सीधी उतरती-
भीड़ ढो-ढो कर थकी-हारी धरा पर,
वे जो सींचते हैं
रोशनी के झल-मली झरने, कि बोलें हम-
यह माटी उर्वरा है,
वे जो सौंपते हैं-
सरजना के देवता को कुंकुमी चूनर,
पंछियों के स्वर,
नई क्रियाओं की धरा
स्वयं के विसर्जन की घड़ी में,
वे जो जड़ लगा करते हमें
संकेत देते हैं-नई दिशाओं के !