भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
336 / हीर / वारिस शाह
Kavita Kosh से
तेरियां सेलियां तों असीं नहीं डरदे कोई डरे ना भीलदे साग कोलों
ऐवें मरीदा जानसे एस पिंडों जिवें खिसकदा कुफर है बाग कोलों
सिर कज के तुरेंगा झब जटा जिवें सप उठ चलदा डांग कोलो
ऐवें खपरी सुट के जाएंगा तूं जिवें धाड़वी खिसकदा काग कोलों
मेरे डिठया गई है जान तेरी जिवें चोर दी जान झलांग<ref>सवेर</ref> कोलों
तेरी टोटड़ी<ref>बूथी</ref> फरकदी सप वांगू आ रन्नां दे डरी उपांग<ref>अंग</ref> कोलों
ऐवें खौफ पैसी तैनूं मारने दा जिवें सूकदा पैर उलांग कोलों
वारस शाह इस जोगी दी चोग मुकी पानी मंगदे नेजे दी सांग कोलों
शब्दार्थ
<references/>