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कुर्सी / सुनील कुमार शर्मा

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कुर्सी बनाती है मिज़ाज,
लाती है सनक
अहंकार भी जगाती है
छोटी कुर्सी छोटा गुस्सा
मझोली कुर्सी
मझोले क़द का गुस्सा
बड़ी कुर्सी लाती है
बड़ी सनक और बड़ा गुस्सा

कुर्सी गुनगुनाती है
गाती है ख़ुशी के गीत
कभी-कभी अट्टहास भी लगाती है
सुनाती है कई तरह के क़िस्से
कहती है, चित्रकार हूँ
बैठने वाले के व्यक्तित्व में
रंग अबूझ से भर जाती हूँ
मैं तो अक्सर चरित्र भी
बदल जाती हूँ

कुर्सी आगे बताती है
मिले यदि, बैठ जाना तपाक से,
वर्ना फिर कुर्सी हाथ नहीं आती
पकड़ने में पाजामा क्या
पैंट भी सरक जाती है
गुमान में उर्वशी की
मानिन्द कुर्सी इठलाती है
हर किसी को रिझाती है
महाभारत भी कई बार
करवाती है
बस ज़रूरत है
कुर्सी की चाह जगने की
है जैसे ही लालसा जगती
चेतना लेती है करवट,
संवेदनाएँ उलझ जाती हैं।
और फिर एक नया
कुरुक्षेत्र सज जाता है

कुर्सी के उच्छ्वास से
निकलता है नया सिद्धान्त
कुर्सी-सिद्धान्त गम्भीरता से
समझाता है
भांजे की बजाय अब
शकुनि मामा स्वयं
मौक़ा मिलते ही
बैठ जाता है,
दुर्योधन देखता
रह जाता है
कुर्सी का अजब है खेल
हर मोड़ पर
बदल जाता है॥