खंजन / नामवर सिंह
घन गए, गया दुर्दिन, आए
तेरे ये अश्रुभीरु खंजन ।
मंजुल अंजन-रंजित खंजन ।
झर गए धान के धवल फूल
भर गई दूध से नव बाली
ले पिंग बालियों की, माला
हिल रही हृदय की हरियाली
गिर पड़ी आह नभ से स्रज सी
उन खिले खंजनों की अवली
उर पर तेरी वह पहनाई
नयनों की एकावली हिली
बिखरा उदास सा कास हास
रह गई दूब पीकर शबनम
स्वर्णिम परागमय आर्द्र धूप
पी रहे अधखुले वातायन ।
पीले बालातप की सरसी
शरमाई आँखों सी थर -थर
झर रहे पेड़ की फाँकों से
स्थल पद्मों पर कंचन निर्झर
देखता - देखता मैं इनको
बन गया स्वप्न का शीशमहल
तुम दीपशिखा सी प्रतिबिम्बित
जल रही प्राण भर मचल - मचल
हलकी हिलोर ले उठी हवा
झिंप गई ज्योति खुल गए नयन
पड़ गई रजत घन में मन में
मीठी सी कहीं - कहीं सिकुड़न !
उड़ गए तितलियों से सनकें
वे स्वर्णफूल कुछ दिन रहकर
उड़ गया गूँज सा छोड़ मुझे
वह प्यासा विहग ’पी...पी’ कहकर
पानी में जगा, जगा ज्वाला
उड़ गई सिन्दूरी साँझ कहीं
रह - रह मन में उठने वाली
साँवली घटाएँ आज नहीं
आ गया गुलाबी दिन, लेकिन
देता है चुभा - चुभा सुधियाँ
निशि में भी नयनों में आकर
फुदकते तुम्हारे वे खंजन ।
सितम्बर, १९४८