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तुलना / राग-संवेदन / महेन्द्र भटनागर

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जीवन
कोई पुस्तक तो नहीं
कि जिसे
सोच-समझ कर
योजनाबद्व ढंग से
लिखा जाए / रचा जाए!
उसकी विषयवस्तु को _
क्रमिक अधयायों में
सावधानी से बाँटा जाए,
मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए!
स्व-अनुभव से, अभ्यास से
सुन्दर व कलात्मक आकार में
ढाला जाए,
शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर
चमत्कार की चमक में उजाला जाए!
जीवन की कथा
स्वत: बनती-बिगड़ती है
पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है!
कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए,
कब एक झटके में
सब बिगड़ जाए!
जीवन के कथा-प्रवाह में
कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं,
अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं,
कोई पूर्वाभास नहीं,
आयास-प्रयास नहीं!
ख़ूब सोची-समझी
शतरंज की चालें
दूषित संगणक की तरह
चलने लगती हैं,
नियंत्रक को ही
छलने लगती हैं
जीती बाज़ी
हार में बदलने लगती है!
या अचानक
अदृश्य हुआ वर्तमान
पुन: उसी तरतीब से
उतर आता है
भूकम्प के परिणाम की तरह!
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!