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पत्थर / सुशांत सुप्रिय
Kavita Kosh से
वह एक पत्थर था
रास्ते में पड़ा हुआ
सुबह जब मैं वहाँ से गुज़रा
मैंने देखा --
कोई उसके दाईं ओर से
निकल कर जा रहा था
कोई बाईं ओर से
सारा दिन वह पत्थर
धूप में तपता हुआ
वैसे ही पड़ा रहा
शहर की उस व्यस्त सड़क पर
उसे भी इच्छा हुई कि
कोई तो उसे छुए
कोई तो उसे उठाए
जैसे छुआ जाता है
फूल को या
जैसे उठाया जाता है
मूर्तियों को
किंतु किसी ने उसे
ठोकर भी नहीं मारी
हालाँकि वह एक
बेहद गरम दिन था
किंतु शाम को जब मैं
उसी रास्ते से लौट रहा था
मैंने देखा
पत्थर में से कुछ
रिस रहा था पानी जैसा
हे देव
क्या ऐसा भी होता है
पत्थर भी रोता है?