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बैगा आदिवासियों का नाच / ज्योति शर्मा

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बहुत धूल उड़ाई उन्होंने
सब कवयित्रियों और कवियों के मुँह पर
पुत गई थी धूल
महुआ पीकर नाच रही थी पृथिवी
और चाँद अपनी जगह से हट गया था
जैसे आधी रात के बाद ब्रा का खुला हुआ हुक
ऊँची एड़ी की सैंडल पहने मैंने नापी गाँव की सड़कें
पार किए जंगली नाले
जंगली मुर्ग़ों की बाँग से जागी
और कुछ देर के लिये ही सही
भूल गई उसेए जो मेरे प्रतीक्षा में बड़ी ई की मात्रा की तरह
बड़ा होता जा रहा था
मावे की जलेबियों की तरह थी वह चाँदनी रातें
जिनपर सर्दी के कारण सुख का घी जमा हुआ था