सरे-नियाज़ तेरे दर पे हम झुका के चले / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी
सरे-नियाज़ तेरे दर पे हम झुका के चले
मताए-सब्रो-सुकूँ आज हम लुटा के चले
ये बेनियाज़ी-ए-फ़ितरत का था कमाल कि हम
चराग़े-ज़ीस्त लिए सामने हवा के चले
उड़ान उसकी वजूद-ओ-अदम की हायल है
कहो ख़याल से अब यूँ न लड़खड़ा के चले
सितम शुमार ज़माने से क्या गिला करते
नज़र नवाज़ भी हमसे नज़र चुरा के चले
मिज़ाजे-अहले-चमन ख़ार-ख़ार लगता है
सबा को चाहिए अपनी क़बा बचा के चले
ग़ुबारे-वक़्त ने चेहरे कुछ ऐसे पोते हैं
न कोई रो ही सके और न मुस्कुरा के चले
ये कैसा वक़्त भला हम पे आने वाला है
हमारे दोस्त ही हमसे नज़र बचा के चले
मिटा तो लो अभी दामने से दाग़हाये अना
ये किस लिबास में तुम सामने ख़ुदा के चले
किसी को ‘चाँद’ से शिक़वा है बेवफ़ाई का
वफ़ा के नक़्श कहाँ थे जो हम मिटा के चले