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कविताओं से बाहर जीने के दौर में / मनोज श्रीवास्तव

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कविताओं से बाहर जीने के दौर में


अब कविताओं में
नहीं जी रहे हैं लोग,
बदलाव चाहते हैं वे
कोठियों को छोड़
फ्लैटों में बस रहे हैं लोग

क्या हश्र होगा
हवादार और प्रदूषणमुक्त
कविताओं से बाहर
शहरी आबोहवा की
घुटन और उबन में जीने का?

इसका मतलब यह है कि
परित्यक्त कवितायेँ
भुतहे खँडहर में तब्दील हो जाएँगी,
विकास के नाम पर
खंडहरों पर कल-कारखाने उगेंगे,
कवितायेँ ज़मींदोज़ हो जाएँगी
विकास की भेंट चढ़ जाएँगी

अहम् सवाल यह है कि
कविताओं में वापस आने वाले लोग
कहाँ ज़मीन तलाशेंगे?

चप्पे-चप्पे पर विकास की
इमारत खड़ी होगी,
पुरातत्त्ववेत्ता कब्र में समाई
कविताओं के लिए
उत्खनन अभियान
कुछ सदियों तक
चलाएंगे या नहीं?