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|रचनाकार=सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
}}
{{KKCatKavita}}<poem>यह सिमटती साँझ,<br>यह वीरान जंगल का सिरा,<br>यह बिखरती रात, यह चारों तरफ सहमी धरा;<br>उस पहाड़ी पर पहुँचकर रोशनी पथरा गयी,<br>आख़िरी आवाज़ पंखों की किसी के आ गयी,<br>रुक गयी अब तो अचानक लहर की अँगड़ाइयाँ,<br>ताल के खामोश जल पर सो गई परछाइयाँ।<br>दूर पेड़ों की कतारें एक ही में मिल गयीं,<br>एक धब्बा रह गया, जैसे ज़मीनें हिल गयीं,<br>आसमाँ तक टूटकर जैसे धरा पर गिर गया,<br>बस धुँए के बादलों से सामने पथ घिर गया,<br>यह अँधेरे की पिटारी, रास्ता यह साँप-सा,<br>खोलनेवाला अनाड़ी मन रहा है काँप-सा।<br>लड़खड़ाने लग गया मैं, डगमगाने लग गया,<br>देहरी का दीप तेरा याद आने लग गया;<br>थाम ले कोई किरन की बाँह मुझको थाम ले,<br>नाम ले कोई कहीं से रोशनी का नाम ले,<br>कोई कह दे, "दूर देखो टिमटिमाया दीप एक,<br>ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!"<br><br>
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