भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अंजना बख्शी / परिचय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
  
 
अन्य:
 
अन्य:
अंजना बख्शी की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए भारत की प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री अनामिका कहती हैं-
+
अंजना बख्शी की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए भारत की प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री [[अनामिका]] कहती हैं-
"अंजना बख्शी सपनों और स्मृतियों की एक छोटी-सी गठरी के साथ जेएनयू आई थीं। अब इस गठरी में संसार बँधा है- अपनी समस्त विडम्बनाओं की लहालोट के साथ! बहुत सारे श्रमसिद्ध चरित्र इन्होंने उकेरे हैं- आठ वर्षीय यासमीन/बुन रही है सूत/जिसके रूँएँ के मीठे जहर का स्वाद/नाक और मुँह के रास्ते उसके शरीर में/घर कर रहा है......अब्बा का अस्थमा, अम्मी की तरह...... एक्सरे।
+
"अंजना बख्शी सपनों और स्मृतियों की एक छोटी-सी गठरी के साथ जेएनयू आई थीं। अब इस गठरी में संसार बँधा है- अपनी समस्त विडम्बनाओं की लहालोट के साथ! बहुत सारे श्रमसिद्ध चरित्र इन्होंने उकेरे हैं-  
  
दीनू मोची, बस में गाती गुड़िया, भेलू की स्त्री, केले बेचती लड़की, बल्ली बाई, जिस्म बेचती रामकली, अख़बार बेचता बच्चा, भुट्टा बेचती लड़की, कचरा बीनता अधनंगा बच्चा, ईंट ढोती औरत......श्रमदोहन वाले इस बाज़ार के पार जो अंतरंग-सा कोना है, उसमें 'मुनिया' का बचपन अपनी माँ और बाबा से कई जटिल प्रश्न पूछता नजर आता है- 'मेरे हाथों से चपेटे/छुड़ाकर तुम्हें क्या मिला माँ/रोज जला करते मेरे हाथ/रोटियाँ सेंकते.....सब्जी में नमक भी/हो जाता था ज्यादा/तब मिर्च-सी/लाल हो जातीं तुम्हारी आँखें'
+
आठ वर्षीय यासमीन
 +
बुन रही है सूत
 +
जिसके रूँएँ के मीठे जहर का स्वाद
 +
नाक और मुँह के रास्ते उसके शरीर में
 +
घर कर रहा है......अब्बा का अस्थमा, अम्मी की तरह...... एक्सरे।
 +
 
 +
दीनू मोची, बस में गाती गुड़िया, भेलू की स्त्री, केले बेचती लड़की, बल्ली बाई, जिस्म बेचती रामकली, अख़बार बेचता बच्चा, भुट्टा बेचती लड़की, कचरा बीनता अधनंगा बच्चा, ईंट ढोती औरत......श्रमदोहन वाले इस बाज़ार के पार जो अंतरंग-सा कोना है, उसमें 'मुनिया' का बचपन अपनी माँ और बाबा से कई जटिल प्रश्न पूछता नजर आता है-  
 +
 
 +
'मेरे हाथों से चपेटे
 +
छुड़ाकर तुम्हें क्या मिला माँ
 +
रोज जला करते मेरे हाथ
 +
रोटियाँ सेंकते.....सब्जी में नमक भी
 +
हो जाता था ज्यादा/तब मिर्च-सी
 +
लाल हो जातीं तुम्हारी आँखें'
  
 
वंचितों के प्रति उनकी अगाध सहानुभूति, सहज भाषा और संवेदनशील लोकसंदर्भ इनकी काव्य-यात्रा के पाथेय बनेंगे, यही उम्मीद है।"  
 
वंचितों के प्रति उनकी अगाध सहानुभूति, सहज भाषा और संवेदनशील लोकसंदर्भ इनकी काव्य-यात्रा के पाथेय बनेंगे, यही उम्मीद है।"  
 
</poem>
 
</poem>

20:11, 14 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

अंजना बख्शी
समकालीन हिन्दी कविता में एक उभरता हुआ नाम।
जन्म : 5 जुलाई 1974 को दमोह, मध्य प्रदेश में।
शिक्षा : हिन्दी अनुवाद विषय मे एम०फ़िल० तथा एम० सी०जे० यानी जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम० ए०।
देश की छोटी-बड़ी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
नेपाली, तेलगू, उर्दू, उड़िया और पंजाबी में कविताओं के अनुवाद।
’गुलाबी रंगोंवाली वो देह’ पहला कविता-संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित।
संपर्क : 207, साबरमती हॉस्टल, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली–110067
दूरभाष : 09868615422
ईमेल : anjanajnu5@yahoo.co.in
पुरस्कार : ‘कादम्बिनी युवा कविता’ पुरस्कार 2006, डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान, युवा प्रतिभा सम्मान 2004 इत्यादि से सम्मानित अंजना ने ग्रामीण अंचल पर मीडिया का प्रभाव, हिंदी नवजागरण में अनुवाद की भूमिका, अंतरभाषीय संवाद, संपादन की समस्याएं, पंजाबी साहित्य एवं विभाजन की त्रासदी आदि विषयों पर छोटे-छोटे शोधकार्य भी किये हैं। कविता, कहनी, आलेख, लघुकथा, साक्षात्कार, समीक्षा एवं फीचर-लेखन आदि लेखन-विधाओं में बराबर हस्तक्षेप रखनेवालीं अंजना अभिनय भी करती हैं। नुक्कड़-नाटकों, मेलों, उत्सवों, कार्यशालाओं के माध्यम से लोगों को जगाती भी हैं। देश भर के आकाशवाणी केन्द्रों से इनकी रचनाओं का प्रसारण हुआ है। अनुवाद भी करती हैं (पंजाबी से कुछ चुनी हुई रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद, अंग्रेजी से हिन्दी में कुछ आलेखों का अनुवाद, डॉ॰ आर॰ डी॰ एस॰ मेहताब के पंजाबी उपन्यास 'वे वसाए' का हिन्दी अनुवाद)। 'समकालीन अभिव्यक्ति', नई दिल्ली में संपादन सहयोग के साथ-साथ 'मसि-कागद' के 'युवा विशेषांक' (जनवरी 2005) का अतिथि संपादन भी किया।

अन्य:
अंजना बख्शी की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए भारत की प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री अनामिका कहती हैं-
"अंजना बख्शी सपनों और स्मृतियों की एक छोटी-सी गठरी के साथ जेएनयू आई थीं। अब इस गठरी में संसार बँधा है- अपनी समस्त विडम्बनाओं की लहालोट के साथ! बहुत सारे श्रमसिद्ध चरित्र इन्होंने उकेरे हैं-

आठ वर्षीय यासमीन
बुन रही है सूत
जिसके रूँएँ के मीठे जहर का स्वाद
नाक और मुँह के रास्ते उसके शरीर में
घर कर रहा है......अब्बा का अस्थमा, अम्मी की तरह...... एक्सरे।

दीनू मोची, बस में गाती गुड़िया, भेलू की स्त्री, केले बेचती लड़की, बल्ली बाई, जिस्म बेचती रामकली, अख़बार बेचता बच्चा, भुट्टा बेचती लड़की, कचरा बीनता अधनंगा बच्चा, ईंट ढोती औरत......श्रमदोहन वाले इस बाज़ार के पार जो अंतरंग-सा कोना है, उसमें 'मुनिया' का बचपन अपनी माँ और बाबा से कई जटिल प्रश्न पूछता नजर आता है-

'मेरे हाथों से चपेटे
छुड़ाकर तुम्हें क्या मिला माँ
रोज जला करते मेरे हाथ
रोटियाँ सेंकते.....सब्जी में नमक भी
हो जाता था ज्यादा/तब मिर्च-सी
लाल हो जातीं तुम्हारी आँखें'

वंचितों के प्रति उनकी अगाध सहानुभूति, सहज भाषा और संवेदनशील लोकसंदर्भ इनकी काव्य-यात्रा के पाथेय बनेंगे, यही उम्मीद है।"