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अंतः सलिला / अज्ञेय

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अंत: सलिला

रेत का विस्तार

नदी जिस में खो गयी

कृश-धार :

झरा मेरे आंसुओं का भार

-मेरा दुःख-धन,

मेरे समीप अगाध पारावार –

उस ने सोख सहसा लिया

जैसे लुट ले बटमार।

और फिर अक्षितिज

लहरीला मगर बेटूट

सूखी रेत का विस्तार –

नदी जिस में खो गयी

कृश-धार।



किन्तु जब-जब जहाँ भी जिस ने कुरेदा

नमी पायी : और खोदा –

हुआ रस-संचार :

रिसता हुआ गड्ढा भर गया।

यों अनजान पा पंथ

जो भी क्लांत आया, रुका ले कर आस,

स्वल्पायास से ही शांत

अपनी प्यास

इस से कर गया :

खींच लंबी साँस

पार उतर गया।


अरे, अंत: सलिल है रेत :

अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई अविराम फिर भी घाव अपने आप भारती,

पड़ी सहज ही,

धूसर-गौर,

निरीह और उदार! (1959 ,आँगन के पार द्वार )