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अंतहीन सूनापन / संतोष श्रीवास्तव

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करौंदे की झाड़ियों तक
खिंची आती हूँ मैं
सूना सन्नाटा और फुदकती गिलहरी
पैरों के नीचे लचीली दूब पर
रेंगती हैं बीरबहूटियाँ
जाला बुना है मकड़ियों ने
निबिड़ एकांत में
दर्जी चिड़िया ने
दो पत्तों को जोड़कर
घर बनाया है
यह एकांत सुख की लालसा
यह घर बसाने की कामना
मेरी पहुँच में नहीं
मेरे हिस्से है तनहाई
एकांत नहीं है, सूनापन है
और मैं चल पड्ती हूँ
निःशब्द टपकती
ओस की बूंदों पर पांव रखती
जहाँ अंतहीन सूनापन
बाट जोह रहा है मेरी