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अंदर का सुकूत कह रहा है / शाहिद कबीर

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अंदर का सुकूत कह रहा है
मिट्टी का मकान बह रहा है

शबनम के अमल से गुल था लरज़ाँ
सूरज का इताब सह रहा है

बिस्तर में खुला कि था अकहरा
वो जिस्म जो तह-ब-तह रहा है

पत्थर को निचोड़ने से हासिल
हर चंद नदी में रह रहा है

आईना पिघल चुका है ‘शाहिद’
साकित हूँ मैं अक्स बह रहा है