भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अइली भदउवा केरी राति, सघन घन घेरि रहे / दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह 'नाथ'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अइली भदउवा केरी राति, सघन घन घेरि रहे।
बाबू चढ़लीं रयनि अधिराति, फिरंगी दल काँपि रहे।।
नभवा से गिरे झरि-झरि धार, तुपक रन गोली झरे।
बाबू के घोड़ा करै कटि, कटक गोरा काटि रहे।।

टपाटप बाजे ओके टाप, छपाछप मूड़ी गिरे।
तब घेरले फिरंगिया एकाह, अजब बाबू युद्ध करे।।
दँतवा से धइले चट लगाम, दुनो हाथे वार करे।
पयँतरा पै दउड़े लागे घोड़, झनाझन खड्ग चले।।

बीबीगंज भइले घमसान, धमाधम तोप चले।
होखली संगीनवा के मारि, दुनो दलवा जूमि लरे।।
गिरले आयर अरराय, छाती मूका मारि कहे।
‘बाबू गजब फेंके तरुआरि, बाघे अस टूटि परे।।

धन ऊ मतरिया जे लाल, सिलौधा जनु जनम दई।
अब जइहे फिरंगिया के राज, बचवलो से नाहिं बचे’।।