भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अक्षरों में खिले फूलों सी / जयकृष्ण राय तुषार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: अक्षरों में खिले फूलों सी रोज सांसों में महकती है। ख्वाब में आकर …)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
अक्षरों में
+
अक्षरों में<br />
खिले फूलों सी
+
खिले फूलों सी<br />
रोज सांसों में महकती है।
+
रोज सांसों में महकती है।<br />
ख्वाब में
+
ख्वाब में<br />
आकर मुंडेरों पर
+
आकर मुंडेरों पर<br />
एक चिड़िया सी चहकती है।
+
एक चिड़िया सी चहकती है।<br />
  
बिना जाने
+
बिना जाने<br />
और पहचाने
+
और पहचाने<br />
साथ गीतों के सफर में है,
+
साथ गीतों के सफर में है,<br />
दूर तक
+
दूर तक<br />
प्रतिबिम्ब कोई भी नहीं
+
प्रतिबिम्ब कोई भी नहीं<br />
मगर वो मेरी नजर में है,
+
मगर वो मेरी नजर में है,<br />
एक जंगल सा
+
एक जंगल सा<br />
हमारा मन
+
हमारा मन<br />
वो पलाशों सी दहकती है।
+
वो पलाशों सी दहकती है।<br />
  
बांसुरी
+
बांसुरी<br />
मैं होठ पर अपने
+
मैं होठ पर अपने<br />
सुबह-शामों को सजाता हूं,
+
सुबह-शामों को सजाता हूं,<br />
लोग मेरा
+
लोग मेरा<br />
 
स्वर समझते हैं<br />
 
स्वर समझते हैं<br />
 
मैं उसी की धुन सुनाता हूं,<br />
 
मैं उसी की धुन सुनाता हूं,<br />

14:33, 27 नवम्बर 2010 का अवतरण

अक्षरों में
खिले फूलों सी
रोज सांसों में महकती है।
ख्वाब में
आकर मुंडेरों पर
एक चिड़िया सी चहकती है।

बिना जाने
और पहचाने
साथ गीतों के सफर में है,
दूर तक
प्रतिबिम्ब कोई भी नहीं
मगर वो मेरी नजर में है,
एक जंगल सा
हमारा मन
वो पलाशों सी दहकती है।

बांसुरी
मैं होठ पर अपने
सुबह-शामों को सजाता हूं,
लोग मेरा
स्वर समझते हैं
मैं उसी की धुन सुनाता हूं,
बादलों से
जब घिरा हो मन
मोर पंखों सी थिरकती है।

वो तितलियों
और परियों सी
उड़ा करती है फिजाओं में,
वो क्षितिज पर
इन्द्रधनुओं सी
और हम उसके छलाओ में,
एक हीरे की
कनी बनकर
वो अंधेरों में चमकती है।

एक नीली
पंखुरी पर फूल की
होठ थे किसके गुलाबी दिख रहे,
एक मुश्किल सा
प्रणय का गीत
सिर्फ यादों के सहारे लिख रहे,
डायरी पर
लिख रहा हूं मैं
चूड़ियों सी वो खनकती है।