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[[Category:ग़ज़ल]]
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अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और
उस कू-ए-मलामत में गुजरते कोई दिन और
हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखाए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों कोतुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थीमरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थेये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और '''कू-ए-मलामत''' - ऐसी गली, जहाँ व्यंग्य किया जाता हो<br>'''खुर्शीद''' - सूर्य, '''रंज''' - तकलीफ़, '''गमतलब'''- दुख पसन्द करने वाले<br>'''तर्के-तअल्लुक''' - व्श्ति रिश्ता टूटना( यहाँ संवाद हीनता से मतलब है)<br/poem>