भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अजनबी माँ / मनीष मूंदड़ा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:34, 21 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीष मूंदड़ा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे सीने की सहमी एकांत गलियों में
एक सिहरन-सी उठती है
रह रह कर
तुम तक तो पहुँचती होगी
मेरी कोख के सन्नाटे में
गूँजती होगी
मेरी छटपटाहट?
मेरे पछतावे की पीड़ा
तुम तक तो पहुँचती होगी?

तुम अनभिज्ञ हो
अपने अस्तित्व से
अनजान हो अपने होने से
मेरी धमनियों से बहता ख़ून
अब तुम्हारे रगों में दौड़ता है
मेरे सीने की धड़कन
अब तुम्हारा भी हिस्सा है
जिंदा हो तुम
सहमा-सा नन्हा मन
क्या तुम भी सहमे से हो?
क्या तुम सुन-सुन सकता है मेरी व्यथा?
मेरा अंधेरा,
क्या तुम्हें भी महसूस है होता?

मुझमे एक अँधेरा है अब
चुपचाप सा
उसका साया तुम पर भी तो होगा
एक चुप-सा डर
हम दोनों के रिश्ते को ओढ़े है
मैं माँ हूँ तुम्हारी
पर हमारी अपनी दुनिया के लिए
कहाँ तैयार हूँ मैं?

तुम तो मेरे मन का हिस्सा हो
तुम समझते हो ना
मेरा डर
मेरा दर्द
मेरी विवशता
साथ दोगे ना मेरा
मेरे इस फैसले का
असर होगा तुम पर,
मुझ पर
लेकिन अभी तुम्हें जाना होगा
अपना जीवन त्याग कर
मुझे जीवन दान देना होगा
मैं जन्म कहाँ दे पाऊँगी तुमको
पर तुम जाते-जाते नया जीवन दान दोगे मुझको

तुम्हारे सफ़र का अंत होगा
मेरे अंदर की माँ का भी अंत होगा
जिंदा रह पाऊँगी मैं
फिर से तुम्हारा इंतजार रहेगा
शायद तब मैं प्रबल रहूँ
तुम्हारे आने का सबल रखूँ
फिर से शुरुआत करेंगे
अगर तुम मुझ पर विश्वाश करो
तो इस बार लम्बा सफ़र तय करेंगे
तुम्हारी माँ।