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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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(राग भैरवीमाँड-ताल कहरवा)
जय जय जय दाता शिव शंकर। आशुतोष सुखकर अभयंकर॥अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार।माथ सुधाकर सुरधुनि-धारे। हाथ त्रिशूल त्रिशूल निवारे॥पापबंदौं शिव-ताप सब शापसँहारक। भुवनपद-भक्तयुग-भवकमल अमल अतीव उदार॥-भीति-विदारक॥१॥जयति त्रिलोचन! जय त्रिपुरारी। कुञ्मति-काम-हर मंगलकारी॥जय हिमान्ग हिमगिरिके वासी। हिमगिरिसुताआर्तिहरण सुखकरण शुभ भुक्ति-सहित सुखरासी॥कालकूट कर घूँट उतारा। नीलमुक्ति-कंञ्ठ हर हर ओंकारा॥दातार।मौलि चन्द्र-चिह्नित विशाल वर। जटाकरो अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार॥-जूट सिर जटिल जाल धर॥२॥गर्वित गन्ग तरंग तापहर। भाल त्रिपुण्डित मुण्डमाल गर॥भस्म विभूति भुजग आभूषण। विजया आक धतूर समर्पण॥कटि कराल व्यालित बाघंबर। कर डमरू डिमडिम प्रलयंकर॥नमः शिवाय जप‌उँ बहु बारा। शभु ! काज सब करहु हमारा॥जय गजतुंड-जनक त्रिपुरारी। विघन-विदारक भव-भयपर्‌यो पतित भवकूप महँ सहज नरक-हारी॥‌आगार।समरथ सतत समाधि लगाये। योगसहज सुहृद पावन-निरत माया विलगाये॥आगम निगम पन्थ सब हारे। अन्त गहे शिव ! चरण तुहारे॥शिव सुमिरत नासत तन-पीरा। शिव सुमिरत भाजत भवपतित, सहजहि लेहु उबार॥-भीरा॥३॥शिव सुमिरत अघ ओघ अपारा। काम-चाप सम जरत न बारा॥शिव सुमिरत रिन-रोग नसा‌ई। शिव सुमिरत बलपलक-बुधि विकसा‌ई॥शिव सुमिरत रिधि-सिधि नियरा‌ई। शिव सुमिरत रिपु करत मिता‌ई॥दैहिक दैविक भौतिक तापा। शिव सुमिरत सपनेहुँ नहिं व्यापा॥बेल पत्रपलक आशा भर्‌यो, अक्षत, पय-धारा। धूप-धतूर तुमहिं अति प्यारा॥रह्यो सुबाट निहार।नन्दी गण शिव समुख राजे। जेहि पद परसि सकल दुख भाजे॥कर त्रिशूल नन्दी असवारी। तुम त्रिभुवन-त्राता त्रिपुरारी॥मेटत पाप-तापकी ज्वाला। कालकूट कर कण्ठ कराला॥आदि शक्ति अर्धान्ग भवानी। जेहि जपि जगत लहत सुख-खानी॥हर हर कहत हरत सब पीरा। शंभु कहत सुख लहत शरीरा॥शंकर कहत सकल कल्याना। रुद्र कहत मेटत भय नाना॥तुम देवन महँ सब विधि पूरे। आशुतोषढरो तुरंत स्वभाववश, दानी अति रूञ्रे॥अर्चन सुगम, सुगम अति पूजा। महादेव सम देव नेक दूजा॥मनकरो अबार॥-क्रम-वचन ध्यान जो लावै। तुरतहिं मनवाच्छित फल पावै॥स्नान ध्यान-‌अभिषेक तुहारा। सब फलप्रद जानत संसारा॥जो विधि रची भीति-भव-बाधा। शंभु सुमिरि सब मिटत विषादा॥रंक लहत निधि, सिधि लह जोगी। पावत विभव विगत रुज रोगी॥‘शंभु’ नाम पतवार बना‌ई। भव-सागर-तरनी तर जा‌ई॥सुनु शिव विनत विनय अब मोरी। करहु विमल मति, जग-रति थोरी॥काटहु संकट-कटक विशाला। करि ऋञ्ण-रुण्ड धरहु गल माला॥पाप-ताप बेधहु तिरसूला। स्रवहु सकल सिधि मंगल-मूला॥जे जग-जाल विकलता-रासी। ते छन छारि करहु सुखरासी॥ईति भीति ऋञ्ण रुज विनसा‌ई। होहु दास हित शंभु सहा‌ई॥अन्तर अमल विवेक विचारा। सोचहु उर सुर-सरिता धारा॥रचे‌उँ सकल हित शिव चालीसा। करिहहिं कृञ्पा सुनत शिव ईसा॥४॥
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