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"अदनान कफ़ील दरवेश / परिचय" के अवतरणों में अंतर

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('अदनान कफ़ील दरवेश “कोई मुझको लौटा दे बचपन का सावन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
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“कोई मुझको लौटा दे बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी”
 
“कोई मुझको लौटा दे बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी”
  
दोस्तों, सच कहूँ तो मुझे लिखना नहीं आता. हाँ, ख़ुदी-बेख़ुदी में कुछ कविताएँ लिख जातीं हैं वो अलहदा बात है. चूँकि दोस्तों की हमेशा से एक शिकायत रही है कि, “मियाँ फेसबुक पर तो बहुत लिखते हो, ब्लॉग काहे नहीं बना लेते”. उनकी शिकायत वाजिब थी, सो हमने तय किया कि आज हम भी बिस्मिल्लाह कर ही दें. दोस्तों, तो आज इस तहरीर को मेरी डायरी का पहला पन्ना समझें. इससे पहले कि मैं कुछ शुरू करूँ, कुछ अपने बारे में बताता चलूँ. मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के तहसील बलिया का रहने वाला हूँ. वहीं मेरी इंटर तक कि पढ़ाई हुयी है. उसके बाद मैं उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय आ गया. दिल्ली में प्रवासियों का जीवन जीते हुए मुझे लगभग तीन साल होने को आये. लेकिन अब तक मेरे भीतर से ठेठ देहातिपना नहीं गया. और जो शायद कभी जायेगा भी नहीं क्यूंकि उसकी जड़ें मेरी मनोवृति में गहरी समाई हुयीं हैं. बचपन से ही मुझे अपने दादा-दादी ( जिन्हें मैं अब्बा-अम्मा ही आज तक पुकारता हूँ.) के पास रहना अच्छा लगता था. वो असल में इसलिए कि वे मेरे लिए इनसाइक्लोपीडिया के सामान थे. जब भी कोई नयी चीज़ मैं देखता था तो उसकी पूरी जानकरी लेने के लिए उनके ही पास ज़रूर दौड़े जाता था. और जैसे सबकी दादी-नानियाँ किस्से-कहानियों का भंडार हुआ करतीं हैं, वैसे ही मेरी भी दादी थीं. उनसे मैं कहानी सुनकर याद कर लेता था और अपनी मित्र-मंडली में बैठकर सुनाता था. और सच कहूँ तो आधी चीज़ें तो मैं भूल जाता था हाहा फिर चूँकि कहानी शुरू कर चुका होता था इसलिए ख़तम भी करनी होती थी. सो उसमें अपनी तरफ से जोड़ बटोर कर “भरमा” दिया करता था. और मज़े की बात ये कि किसी को शक भी नहीं होता था. हमारे मकान के पास ही मीना-रीना दीदी (जिन्हें मैंने कभी दीदी नहीं कहा. हमेशा मीनवा रीनवा कहता था. और वो हमें बबुआ बुलातीं थीं.) का मकान था. बचपन ज़्यादातर उन्हीं के घर बीता. उन्हें मुझसे बहुत लगाओ था हमेशा हथेली में लिए फिरतीं थीं. जो कुछ भी बाबा( दीदी के बाबा) खाने-पीने की चीज़ें बाज़ार से ले आते थे उसमें मेरा हिस्सा ज़रूर होता था, जो मुझे सबसे पहले मिल जाया करता था. हर साल राखी( रक्षाबंधन) के दिन मुझे गपागप मिठाइयाँ खाने को मिलतीं थीं और कलाई पर मेरे पसंद की राखी बंधती थी. इसी तरह दिवाली में उनके साथ मिलकर दिए जलाने में बड़ा मज़ा आता था. बहुत बड़े होने के बाद मुझे ये एहसास हुआ कि उनका घर मेरा नहीं है वरना मैं उसे भी अपनी ही जागीर समझता था हाहा. फिर और बड़े होने पर मुझे पता चला कि मैं मुसलमान हूँ और मेरी दीदी हिन्दू. वैसे जिस दिन मुझे ये पता चला था उस दिन मैं बड़ा परेशान हुआ था. ‘मुसलमान’ और ‘हिन्दू’ जैसे शब्द मेरे लिए नए थे और मेरी समझ से परे भी. उस वक़्त बस इतना ही समझा था कि जो मैं हूँ वो मेरी दीदी नहीं और जो मेरी दीदी है वो मैं नहीं. लेकिन इस ‘दुनियावी सच’ को मेरा दिल कभी न मान सका. हमारे घर में टी.वी थी और उन दिनों ‘महाभारत’ धारावाहिक का बड़ा क्रेज था. जिसे पूरा परिवार देखता था. इसीतरह रात को एक और धारावाहिक “जय हनुमान” आता था जिसे मैं बड़े चाव से देखता था. उसमें हनुमान जी के करतब मुझे बड़े गज़ब लगते थे, जैसे वे जब चाहे उड़ सकते थे, जिसे चाहे पीट सकते थे वगैरह-वगैरह. सो दिल में मैं उन्हें अपना हीरो समझता था और उसी वक़्त अलग चैनल पर समाचार प्रसारित होता था जिसे घर के बड़े ज़रूर सुनते थे. और जिसके लिए मेरी लड़ाई अक्सर हो जाया करती थी. इसीतरह दशहरे के दिनों में हमारे गाँव में हर साल “रामलीला” का मंचन हुआ करता था जिसे शाम को गाँव जवार के स्त्री-पुरुष सब काम निबटा कर ज़रूर देखने जाते थे. और मेरी दीदी और माई( दीदी की अम्मा ) देखने ज़रूर जाते थे सो मैं भी उनके पीछे लग जाता था और टाट का बोरा बगल में दबा कर चल देता था. क्यूंकि वहां सबके लिए कुर्सियां तो होतीं नहीं थीं सो हम अपनी व्यवस्था साथ लेकर चलते थे. सारा कार्यक्रम नौ या दस बजे तक समाप्त हो जाता था और तब तक बिजली भी आ जाती थी जो हमारे यहाँ एक अजूबे से कम नहीं थी. बिजली का आना क्या बताऊं कितना आनंद और उल्लास से भर देता था हमें उन दिनों कि जैसे क्या मिल गया हो. हम उस वक़्त कोई भी काम करते हों चाहे खेलते हों. सब कुछ उसी वक़्त स्थगित हो जाता था और बिजली आने की ख़ुशी में उछल कूद शुरू हो जाती थी. हमारे यहाँ गाँव के थोड़ा बाहर जंगली बाबा का मंदिर है जो अपने समय के सिद्ध संत गुज़रे हैं और जिनके बहुत से मुसलमान आज भी मुरीद हैं. सो हर साल धनतेरस के मौक़े पर मंदिर के आस-पास मेला लगता था जो हमारे लिए विश्व के अजूबे से कम नहीं था और जिसका इंतज़ार हम साल भर किया करते थे. गुल्लक में पैसे शायद इसी लिए हमारी मित्र मंडली में सभी बच्चे जमा करते थे कि मेला घुमने जाना है. उस वक़्त एक या दो रूपए की भी चीज़ ख़रीदते थे तो बेइंतहाँ ख़ुशी मिलती थी जो आजकल हज़ार दो हज़ार के कपड़े-लत्ते ख़रीदकर भी नहीं मिलती. उन दिनों नमाज़ पढ़ना अभी हमने सीखा ही था सो उसका भी क्रेज़ गज़ब था. लेकिन दिल नमाज़ पढने में कम लेकिन उसकी तैय्यारी में ज़्यादा लगता था. मसलन वज़ू बनाने, साफ़ सुथरे कपड़े पहनने, करीने से आइने में देखकर कंघी करने में और इत्र मलकर टोपी पहनकर मस्ती में झूमते हुए, दौड़ते हुए मस्जिद पहुँचने में आता था. और असली बात तो हमने बताई ही नहीं हाहा अब बताते हैं. चूँकि नमाज़ पढ़ने हमारी पूरी मंडली जाती थी न कि केवल हम सो जहाँ मंडली हो वहां कुछ न कुछ शैतानियाँ भी होंगी. सो बात ये थी कि मस्जिद की छत से अमियाँ का पेड़ लगा हुआ था जो किसीके अहाते में पड़ता था. और असल लालच उन अमियों का ही था जिसने हमें नमाज़ी बना दिया था. सो असर की नमाज़ के बाद जब सब चले जाते थे हम लोग फर्श धोने का बहाना कर मौलवी साहब से अगली नमाज़ तक रुकने का वक़्त ले लिया करते थे. चूँकि नमाज़ के बाद मौलवी साहब भी चले जाते थे सो बच जाते थे हमलोग सो जल्दी जल्दी फर्श धोकर चढ़ जाते थे छत पर और ख़ूब अमियाँ तोड़ते थे. फिर दीवार के सहारे बैठ कर बाँट लिया करते थे. कभी-कभी होता यूँ था कि सब बराबर-बराबर अमियाँ बंट जाने के बाद एक अमियाँ बाख जाती थी. और ये किसीको मंज़ूर नहीं था कि वो किसी दूसरे के हिस्से जाए. सो अब शुरू होती थी हमारी लड़ाई बहसें ! जैसे “अबे तोड़ा तो मैंने था सबसे ढेर रिक्स( रिस्क जिसे हम रिक्स ही कहा करते थे) तो हम लिए थे फेंड़(पेड़) पर चढ़ने में सो ई हमार हुआ….” लेकिन ये मसला इन तर्कों से कहाँ सुलझता सो सबसे आसान तरीका होता था “टॉस” का जिसमें सिक्के उछाल कर एकलौती अमियाँ की क़िस्मत अंततः तय हो ही जाती थी. कभी सोचता हूँ उन दिनों के बारे में तो देखता हूँ कि हमारा अबोध बालक मन भी कितना लोकतान्त्रिक था जहाँ हर मसला सबकी राय से सुलझा लिया जाता था. सच वो दिन फिर लौट सकते तो मैं अपने सारे बचे दिन देकर उन्हें मांग लेता जहाँ हमारी न कोई जाति थी और न मज़हब, लेकिन सब अपने में होते थे अव्वल दर्जे के काइयाँ( चतुर लेकिन अबोध). दोस्तों बचपन की बहुत सी यादें आगे चलकर धूमिल हो जातीं हैं लेकिन कुछ स्मृतियाँ हमेशा-हमेशा के लिए जमी रह जातीं हैं, जिन्हें इंसान याद कर-कर के हँसता है. आपके भी जीवन की कुछ ऐसी ही स्मृतियाँ रही होंगी सो अब आप अपनी भी लिखिए नीचे कमेन्ट बॉक्स में. कुछ कविताएँ मैंने बचपन की यादों पर लिखीं थीं कभी सो उन्हें पोस्ट करे देता हूँ. उन्हें बहुत शिल्प और बिम्ब के मानकों पर न परखियेगा बस एक बच्चे के दिमाग से सोचियेगा जो अब थोड़ा बड़ा हो गया है और वो कैसे अपने गुज़रे दिन याद कर रहा है…
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दोस्तो, सच कहूँ तो मुझे लिखना नहीं आता। हाँ, ख़ुदी-बेख़ुदी में कुछ कविताएँ लिख जातीं हैं वो अलहदा बात है। चूँकि दोस्तों की हमेशा से एक शिकायत रही है कि, “मियाँ, फ़ेसबुक पर तो बहुत लिखते हो, ब्लॉग काहे नहीं बना लेते”। उनकी शिकायत वाजिब थी, सो हमने तय किया कि आज हम भी बिस्मिल्लाह कर ही दें। दोस्तो, तो आज इस तहरीर को मेरी डायरी का पहला पन्ना समझें।
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इससे पहले कि मैं कुछ शुरू करूँ, कुछ अपने बारे में बताता चलूँ. मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के तहसील बलिया का रहने वाला हूँ. वहीं मेरी इंटर तक कि पढ़ाई हुयी है. उसके बाद मैं उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय आ गया. दिल्ली में प्रवासियों का जीवन जीते हुए मुझे लगभग तीन साल होने को आये. लेकिन अब तक मेरे भीतर से ठेठ देहातिपना नहीं गया. और जो शायद कभी जायेगा भी नहीं क्यूंकि उसकी जड़ें मेरी मनोवृति में गहरी समाई हुयीं हैं. बचपन से ही मुझे अपने दादा-दादी ( जिन्हें मैं अब्बा-अम्मा ही आज तक पुकारता हूँ.) के पास रहना अच्छा लगता था. वो असल में इसलिए कि वे मेरे लिए इनसाइक्लोपीडिया के सामान थे. जब भी कोई नयी चीज़ मैं देखता था तो उसकी पूरी जानकरी लेने के लिए उनके ही पास ज़रूर दौड़े जाता था. और जैसे सबकी दादी-नानियाँ किस्से-कहानियों का भंडार हुआ करतीं हैं, वैसे ही मेरी भी दादी थीं. उनसे मैं कहानी सुनकर याद कर लेता था और अपनी मित्र-मंडली में बैठकर सुनाता था. और सच कहूँ तो आधी चीज़ें तो मैं भूल जाता था हाहा फिर चूँकि कहानी शुरू कर चुका होता था इसलिए ख़तम भी करनी होती थी. सो उसमें अपनी तरफ से जोड़ बटोर कर “भरमा” दिया करता था. और मज़े की बात ये कि किसी को शक भी नहीं होता था. हमारे मकान के पास ही मीना-रीना दीदी (जिन्हें मैंने कभी दीदी नहीं कहा. हमेशा मीनवा रीनवा कहता था. और वो हमें बबुआ बुलातीं थीं.) का मकान था. बचपन ज़्यादातर उन्हीं के घर बीता. उन्हें मुझसे बहुत लगाओ था हमेशा हथेली में लिए फिरतीं थीं. जो कुछ भी बाबा( दीदी के बाबा) खाने-पीने की चीज़ें बाज़ार से ले आते थे उसमें मेरा हिस्सा ज़रूर होता था, जो मुझे सबसे पहले मिल जाया करता था. हर साल राखी( रक्षाबंधन) के दिन मुझे गपागप मिठाइयाँ खाने को मिलतीं थीं और कलाई पर मेरे पसंद की राखी बंधती थी. इसी तरह दिवाली में उनके साथ मिलकर दिए जलाने में बड़ा मज़ा आता था. बहुत बड़े होने के बाद मुझे ये एहसास हुआ कि उनका घर मेरा नहीं है वरना मैं उसे भी अपनी ही जागीर समझता था हाहा. फिर और बड़े होने पर मुझे पता चला कि मैं मुसलमान हूँ और मेरी दीदी हिन्दू. वैसे जिस दिन मुझे ये पता चला था उस दिन मैं बड़ा परेशान हुआ था. ‘मुसलमान’ और ‘हिन्दू’ जैसे शब्द मेरे लिए नए थे और मेरी समझ से परे भी. उस वक़्त बस इतना ही समझा था कि जो मैं हूँ वो मेरी दीदी नहीं और जो मेरी दीदी है वो मैं नहीं. लेकिन इस ‘दुनियावी सच’ को मेरा दिल कभी न मान सका. हमारे घर में टी.वी थी और उन दिनों ‘महाभारत’ धारावाहिक का बड़ा क्रेज था. जिसे पूरा परिवार देखता था. इसीतरह रात को एक और धारावाहिक “जय हनुमान” आता था जिसे मैं बड़े चाव से देखता था. उसमें हनुमान जी के करतब मुझे बड़े गज़ब लगते थे, जैसे वे जब चाहे उड़ सकते थे, जिसे चाहे पीट सकते थे वगैरह-वगैरह. सो दिल में मैं उन्हें अपना हीरो समझता था और उसी वक़्त अलग चैनल पर समाचार प्रसारित होता था जिसे घर के बड़े ज़रूर सुनते थे. और जिसके लिए मेरी लड़ाई अक्सर हो जाया करती थी. इसीतरह दशहरे के दिनों में हमारे गाँव में हर साल “रामलीला” का मंचन हुआ करता था जिसे शाम को गाँव जवार के स्त्री-पुरुष सब काम निबटा कर ज़रूर देखने जाते थे. और मेरी दीदी और माई( दीदी की अम्मा ) देखने ज़रूर जाते थे सो मैं भी उनके पीछे लग जाता था और टाट का बोरा बगल में दबा कर चल देता था. क्यूंकि वहां सबके लिए कुर्सियां तो होतीं नहीं थीं सो हम अपनी व्यवस्था साथ लेकर चलते थे. सारा कार्यक्रम नौ या दस बजे तक समाप्त हो जाता था और तब तक बिजली भी आ जाती थी जो हमारे यहाँ एक अजूबे से कम नहीं थी. बिजली का आना क्या बताऊं कितना आनंद और उल्लास से भर देता था हमें उन दिनों कि जैसे क्या मिल गया हो. हम उस वक़्त कोई भी काम करते हों चाहे खेलते हों. सब कुछ उसी वक़्त स्थगित हो जाता था और बिजली आने की ख़ुशी में उछल कूद शुरू हो जाती थी. हमारे यहाँ गाँव के थोड़ा बाहर जंगली बाबा का मंदिर है जो अपने समय के सिद्ध संत गुज़रे हैं और जिनके बहुत से मुसलमान आज भी मुरीद हैं. सो हर साल धनतेरस के मौक़े पर मंदिर के आस-पास मेला लगता था जो हमारे लिए विश्व के अजूबे से कम नहीं था और जिसका इंतज़ार हम साल भर किया करते थे. गुल्लक में पैसे शायद इसी लिए हमारी मित्र मंडली में सभी बच्चे जमा करते थे कि मेला घुमने जाना है. उस वक़्त एक या दो रूपए की भी चीज़ ख़रीदते थे तो बेइंतहाँ ख़ुशी मिलती थी जो आजकल हज़ार दो हज़ार के कपड़े-लत्ते ख़रीदकर भी नहीं मिलती. उन दिनों नमाज़ पढ़ना अभी हमने सीखा ही था सो उसका भी क्रेज़ गज़ब था. लेकिन दिल नमाज़ पढने में कम लेकिन उसकी तैय्यारी में ज़्यादा लगता था. मसलन वज़ू बनाने, साफ़ सुथरे कपड़े पहनने, करीने से आइने में देखकर कंघी करने में और इत्र मलकर टोपी पहनकर मस्ती में झूमते हुए, दौड़ते हुए मस्जिद पहुँचने में आता था. और असली बात तो हमने बताई ही नहीं हाहा अब बताते हैं. चूँकि नमाज़ पढ़ने हमारी पूरी मंडली जाती थी न कि केवल हम सो जहाँ मंडली हो वहां कुछ न कुछ शैतानियाँ भी होंगी. सो बात ये थी कि मस्जिद की छत से अमियाँ का पेड़ लगा हुआ था जो किसीके अहाते में पड़ता था. और असल लालच उन अमियों का ही था जिसने हमें नमाज़ी बना दिया था. सो असर की नमाज़ के बाद जब सब चले जाते थे हम लोग फर्श धोने का बहाना कर मौलवी साहब से अगली नमाज़ तक रुकने का वक़्त ले लिया करते थे. चूँकि नमाज़ के बाद मौलवी साहब भी चले जाते थे सो बच जाते थे हमलोग सो जल्दी जल्दी फर्श धोकर चढ़ जाते थे छत पर और ख़ूब अमियाँ तोड़ते थे. फिर दीवार के सहारे बैठ कर बाँट लिया करते थे. कभी-कभी होता यूँ था कि सब बराबर-बराबर अमियाँ बंट जाने के बाद एक अमियाँ बाख जाती थी. और ये किसीको मंज़ूर नहीं था कि वो किसी दूसरे के हिस्से जाए. सो अब शुरू होती थी हमारी लड़ाई बहसें ! जैसे “अबे तोड़ा तो मैंने था सबसे ढेर रिक्स( रिस्क जिसे हम रिक्स ही कहा करते थे) तो हम लिए थे फेंड़(पेड़) पर चढ़ने में सो ई हमार हुआ….” लेकिन ये मसला इन तर्कों से कहाँ सुलझता सो सबसे आसान तरीका होता था “टॉस” का जिसमें सिक्के उछाल कर एकलौती अमियाँ की क़िस्मत अंततः तय हो ही जाती थी. कभी सोचता हूँ उन दिनों के बारे में तो देखता हूँ कि हमारा अबोध बालक मन भी कितना लोकतान्त्रिक था जहाँ हर मसला सबकी राय से सुलझा लिया जाता था. सच वो दिन फिर लौट सकते तो मैं अपने सारे बचे दिन देकर उन्हें मांग लेता जहाँ हमारी न कोई जाति थी और न मज़हब, लेकिन सब अपने में होते थे अव्वल दर्जे के काइयाँ( चतुर लेकिन अबोध). दोस्तों बचपन की बहुत सी यादें आगे चलकर धूमिल हो जातीं हैं लेकिन कुछ स्मृतियाँ हमेशा-हमेशा के लिए जमी रह जातीं हैं, जिन्हें इंसान याद कर-कर के हँसता है. आपके भी जीवन की कुछ ऐसी ही स्मृतियाँ रही होंगी सो अब आप अपनी भी लिखिए नीचे कमेन्ट बॉक्स में. कुछ कविताएँ मैंने बचपन की यादों पर लिखीं थीं कभी सो उन्हें पोस्ट करे देता हूँ. उन्हें बहुत शिल्प और बिम्ब के मानकों पर न परखियेगा बस एक बच्चे के दिमाग से सोचियेगा जो अब थोड़ा बड़ा हो गया है और वो कैसे अपने गुज़रे दिन याद कर रहा है…
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15:43, 24 जून 2019 का अवतरण

अदनान कफ़ील दरवेश

“कोई मुझको लौटा दे बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी”

दोस्तो, सच कहूँ तो मुझे लिखना नहीं आता। हाँ, ख़ुदी-बेख़ुदी में कुछ कविताएँ लिख जातीं हैं वो अलहदा बात है। चूँकि दोस्तों की हमेशा से एक शिकायत रही है कि, “मियाँ, फ़ेसबुक पर तो बहुत लिखते हो, ब्लॉग काहे नहीं बना लेते”। उनकी शिकायत वाजिब थी, सो हमने तय किया कि आज हम भी बिस्मिल्लाह कर ही दें। दोस्तो, तो आज इस तहरीर को मेरी डायरी का पहला पन्ना समझें।

इससे पहले कि मैं कुछ शुरू करूँ, कुछ अपने बारे में बताता चलूँ. मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के तहसील बलिया का रहने वाला हूँ. वहीं मेरी इंटर तक कि पढ़ाई हुयी है. उसके बाद मैं उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय आ गया. दिल्ली में प्रवासियों का जीवन जीते हुए मुझे लगभग तीन साल होने को आये. लेकिन अब तक मेरे भीतर से ठेठ देहातिपना नहीं गया. और जो शायद कभी जायेगा भी नहीं क्यूंकि उसकी जड़ें मेरी मनोवृति में गहरी समाई हुयीं हैं. बचपन से ही मुझे अपने दादा-दादी ( जिन्हें मैं अब्बा-अम्मा ही आज तक पुकारता हूँ.) के पास रहना अच्छा लगता था. वो असल में इसलिए कि वे मेरे लिए इनसाइक्लोपीडिया के सामान थे. जब भी कोई नयी चीज़ मैं देखता था तो उसकी पूरी जानकरी लेने के लिए उनके ही पास ज़रूर दौड़े जाता था. और जैसे सबकी दादी-नानियाँ किस्से-कहानियों का भंडार हुआ करतीं हैं, वैसे ही मेरी भी दादी थीं. उनसे मैं कहानी सुनकर याद कर लेता था और अपनी मित्र-मंडली में बैठकर सुनाता था. और सच कहूँ तो आधी चीज़ें तो मैं भूल जाता था हाहा फिर चूँकि कहानी शुरू कर चुका होता था इसलिए ख़तम भी करनी होती थी. सो उसमें अपनी तरफ से जोड़ बटोर कर “भरमा” दिया करता था. और मज़े की बात ये कि किसी को शक भी नहीं होता था. हमारे मकान के पास ही मीना-रीना दीदी (जिन्हें मैंने कभी दीदी नहीं कहा. हमेशा मीनवा रीनवा कहता था. और वो हमें बबुआ बुलातीं थीं.) का मकान था. बचपन ज़्यादातर उन्हीं के घर बीता. उन्हें मुझसे बहुत लगाओ था हमेशा हथेली में लिए फिरतीं थीं. जो कुछ भी बाबा( दीदी के बाबा) खाने-पीने की चीज़ें बाज़ार से ले आते थे उसमें मेरा हिस्सा ज़रूर होता था, जो मुझे सबसे पहले मिल जाया करता था. हर साल राखी( रक्षाबंधन) के दिन मुझे गपागप मिठाइयाँ खाने को मिलतीं थीं और कलाई पर मेरे पसंद की राखी बंधती थी. इसी तरह दिवाली में उनके साथ मिलकर दिए जलाने में बड़ा मज़ा आता था. बहुत बड़े होने के बाद मुझे ये एहसास हुआ कि उनका घर मेरा नहीं है वरना मैं उसे भी अपनी ही जागीर समझता था हाहा. फिर और बड़े होने पर मुझे पता चला कि मैं मुसलमान हूँ और मेरी दीदी हिन्दू. वैसे जिस दिन मुझे ये पता चला था उस दिन मैं बड़ा परेशान हुआ था. ‘मुसलमान’ और ‘हिन्दू’ जैसे शब्द मेरे लिए नए थे और मेरी समझ से परे भी. उस वक़्त बस इतना ही समझा था कि जो मैं हूँ वो मेरी दीदी नहीं और जो मेरी दीदी है वो मैं नहीं. लेकिन इस ‘दुनियावी सच’ को मेरा दिल कभी न मान सका. हमारे घर में टी.वी थी और उन दिनों ‘महाभारत’ धारावाहिक का बड़ा क्रेज था. जिसे पूरा परिवार देखता था. इसीतरह रात को एक और धारावाहिक “जय हनुमान” आता था जिसे मैं बड़े चाव से देखता था. उसमें हनुमान जी के करतब मुझे बड़े गज़ब लगते थे, जैसे वे जब चाहे उड़ सकते थे, जिसे चाहे पीट सकते थे वगैरह-वगैरह. सो दिल में मैं उन्हें अपना हीरो समझता था और उसी वक़्त अलग चैनल पर समाचार प्रसारित होता था जिसे घर के बड़े ज़रूर सुनते थे. और जिसके लिए मेरी लड़ाई अक्सर हो जाया करती थी. इसीतरह दशहरे के दिनों में हमारे गाँव में हर साल “रामलीला” का मंचन हुआ करता था जिसे शाम को गाँव जवार के स्त्री-पुरुष सब काम निबटा कर ज़रूर देखने जाते थे. और मेरी दीदी और माई( दीदी की अम्मा ) देखने ज़रूर जाते थे सो मैं भी उनके पीछे लग जाता था और टाट का बोरा बगल में दबा कर चल देता था. क्यूंकि वहां सबके लिए कुर्सियां तो होतीं नहीं थीं सो हम अपनी व्यवस्था साथ लेकर चलते थे. सारा कार्यक्रम नौ या दस बजे तक समाप्त हो जाता था और तब तक बिजली भी आ जाती थी जो हमारे यहाँ एक अजूबे से कम नहीं थी. बिजली का आना क्या बताऊं कितना आनंद और उल्लास से भर देता था हमें उन दिनों कि जैसे क्या मिल गया हो. हम उस वक़्त कोई भी काम करते हों चाहे खेलते हों. सब कुछ उसी वक़्त स्थगित हो जाता था और बिजली आने की ख़ुशी में उछल कूद शुरू हो जाती थी. हमारे यहाँ गाँव के थोड़ा बाहर जंगली बाबा का मंदिर है जो अपने समय के सिद्ध संत गुज़रे हैं और जिनके बहुत से मुसलमान आज भी मुरीद हैं. सो हर साल धनतेरस के मौक़े पर मंदिर के आस-पास मेला लगता था जो हमारे लिए विश्व के अजूबे से कम नहीं था और जिसका इंतज़ार हम साल भर किया करते थे. गुल्लक में पैसे शायद इसी लिए हमारी मित्र मंडली में सभी बच्चे जमा करते थे कि मेला घुमने जाना है. उस वक़्त एक या दो रूपए की भी चीज़ ख़रीदते थे तो बेइंतहाँ ख़ुशी मिलती थी जो आजकल हज़ार दो हज़ार के कपड़े-लत्ते ख़रीदकर भी नहीं मिलती. उन दिनों नमाज़ पढ़ना अभी हमने सीखा ही था सो उसका भी क्रेज़ गज़ब था. लेकिन दिल नमाज़ पढने में कम लेकिन उसकी तैय्यारी में ज़्यादा लगता था. मसलन वज़ू बनाने, साफ़ सुथरे कपड़े पहनने, करीने से आइने में देखकर कंघी करने में और इत्र मलकर टोपी पहनकर मस्ती में झूमते हुए, दौड़ते हुए मस्जिद पहुँचने में आता था. और असली बात तो हमने बताई ही नहीं हाहा अब बताते हैं. चूँकि नमाज़ पढ़ने हमारी पूरी मंडली जाती थी न कि केवल हम सो जहाँ मंडली हो वहां कुछ न कुछ शैतानियाँ भी होंगी. सो बात ये थी कि मस्जिद की छत से अमियाँ का पेड़ लगा हुआ था जो किसीके अहाते में पड़ता था. और असल लालच उन अमियों का ही था जिसने हमें नमाज़ी बना दिया था. सो असर की नमाज़ के बाद जब सब चले जाते थे हम लोग फर्श धोने का बहाना कर मौलवी साहब से अगली नमाज़ तक रुकने का वक़्त ले लिया करते थे. चूँकि नमाज़ के बाद मौलवी साहब भी चले जाते थे सो बच जाते थे हमलोग सो जल्दी जल्दी फर्श धोकर चढ़ जाते थे छत पर और ख़ूब अमियाँ तोड़ते थे. फिर दीवार के सहारे बैठ कर बाँट लिया करते थे. कभी-कभी होता यूँ था कि सब बराबर-बराबर अमियाँ बंट जाने के बाद एक अमियाँ बाख जाती थी. और ये किसीको मंज़ूर नहीं था कि वो किसी दूसरे के हिस्से जाए. सो अब शुरू होती थी हमारी लड़ाई बहसें ! जैसे “अबे तोड़ा तो मैंने था सबसे ढेर रिक्स( रिस्क जिसे हम रिक्स ही कहा करते थे) तो हम लिए थे फेंड़(पेड़) पर चढ़ने में सो ई हमार हुआ….” लेकिन ये मसला इन तर्कों से कहाँ सुलझता सो सबसे आसान तरीका होता था “टॉस” का जिसमें सिक्के उछाल कर एकलौती अमियाँ की क़िस्मत अंततः तय हो ही जाती थी. कभी सोचता हूँ उन दिनों के बारे में तो देखता हूँ कि हमारा अबोध बालक मन भी कितना लोकतान्त्रिक था जहाँ हर मसला सबकी राय से सुलझा लिया जाता था. सच वो दिन फिर लौट सकते तो मैं अपने सारे बचे दिन देकर उन्हें मांग लेता जहाँ हमारी न कोई जाति थी और न मज़हब, लेकिन सब अपने में होते थे अव्वल दर्जे के काइयाँ( चतुर लेकिन अबोध). दोस्तों बचपन की बहुत सी यादें आगे चलकर धूमिल हो जातीं हैं लेकिन कुछ स्मृतियाँ हमेशा-हमेशा के लिए जमी रह जातीं हैं, जिन्हें इंसान याद कर-कर के हँसता है. आपके भी जीवन की कुछ ऐसी ही स्मृतियाँ रही होंगी सो अब आप अपनी भी लिखिए नीचे कमेन्ट बॉक्स में. कुछ कविताएँ मैंने बचपन की यादों पर लिखीं थीं कभी सो उन्हें पोस्ट करे देता हूँ. उन्हें बहुत शिल्प और बिम्ब के मानकों पर न परखियेगा बस एक बच्चे के दिमाग से सोचियेगा जो अब थोड़ा बड़ा हो गया है और वो कैसे अपने गुज़रे दिन याद कर रहा है…