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यहाँ इस कविता की व्याख्या में जाने का अवकाश नहीं, फिर भी यह कहना आवश्यक है कि हरिश्चन्द्र पाण्डेय गहरी सभ्यता-समीक्षा के सिर्फ़ कवि हैं। वे कवि, बनना, होना या दिखना नही चाहते। कविता उनके संवेदनशील कवि - मन की विवशता है। उनका कवि न तो निर्द्वन्द्व है और न ही स्थूल प्रत्ययों में द्वन्द्वाधीन। वह अधिकतम मनुष्य होने का विचलन है। उक्त कविता में आया उष्ट्रपृष्ठ हथरिक्शा इलाहाबादी स्थानीयता की एक कारगर पहचान है। ‘कसाईबाड़े की ओर’ कविता में रिक्शे पर बकरी लेकर जाता कसाई जैसे तथाकथित विकास के जाते हुए जनाजे का शोकगीत है। कसाई की मनुष्यता का चरम और उसकी वर्ग-विवशता के बीच बकरी की अवस्थिति से मन सिहर-सिहर उठता है और कविता पाठक को असहाय छोड़ देती है। ‘लाश घर में’, ‘बड़े-बूढ़े’, ‘मिट्ठू हमारे घर में’, ‘नृत्यांगना’ जैसी कविताएँ, कविता के आयतन को और बड़ा करती हैं, तो ‘अधूरा मकान’ और ‘बैठक का कमरा’ निम्न मध्यवर्गीय जीवन की आकाँक्षाओं और सपनों के फिर-फिर हरियाते-मुरझाते उद्वेगों के, घर-घर के स्पंदित होते आख्यान हैं। बल्कि ‘बैठक का कमरा’ कविता तो थोड़े अलग परिप्रेक्ष्य में भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ के टक्कर और वजन-विजन की प्रतीति कराती है। यह देखने की बात है कि काफ़ी पहले लिखी हुई कविता ‘किसान और आत्महत्या’ तमाम पौराणिक और भारतीय जीवन-विश्वासों के साथ कैसे हमारे अभी के समय को सम्बोधित कर रही है। हत्या एवं आत्महत्या के कारक भी हरिश्चंद्र की कविता में बार-बार आते हैं तो यह अकारण नहीं बल्कि हमारे दुर्घट समय के साक्षी बनकर आते हैं। इस कौशल विकास के समय में कुछ भी सकुशल नहीं। सिर्फ़ राजनीतिक कौशल बचे हैं और समूची कृषि-सभ्यता संकटापन्न है। बकौल श्रीकांत वर्मा — ‘कोसल में कमी है तो विचारों की। बचे हैं सिर्फ़ वाचाल।’
हरिश्चंद्र पाण्डेय एक विचारशील कवि हैं। लाउडनेस न तो उनके कवि-स्वभाव में है, न जीवन-स्वभाव में। एक शालीन उद्विग्नता सदैव उनकी कविता का स्थायी भाव है। कुछ ही कवि अब तक की बनी-बनाई परिभाषाओं को ढहाकर काव्य-विवेक के जरिए अपनी कविता का परिसर निर्मित कर पाते हैं। हरिश्चन्द्र उनमें से एक हैं। उनमें सायास लिखने या कवि बनने की न तो बहुत उत्कंठा या उठा-बैठक है, न तो अनायास लिखने का क्रीड़ा-विलास या निष्प्रयोजनीयता। ‘गले की ज्योति मिलना’ से लगायत ‘फूल को खिलते हुए सुनना’ जैसे तमाम पदबंध पारंपरिक इंद्रियबोध से आगे बढ़कर कवि के अनुभव-संसार को व्यापक करते हुए सर्वथानई अनुभूतियों से बावस्ता होते हैं। आभासी दृश्यों के घटाटोप को भेदती हुईं उनकी कविताएँ उन अनगिनत आवाज़ों को ठहरकर सुनने का प्रस्ताव करती हैं जिनमें एतराज, चीख़, चीत्कार, हँसी और क्वचित् ललकार के कण्ठ भी ध्वनित होते हैं। और ‘हर आवाज़ चाहती है कि उसे ग़ौर से सुना जाए’, क्योंकि हमारी दुनिया ‘अन्धे के टापू’ में तब्दील होती जा रही है और भयावहता अन्धेरे को बेकाबू हाथी के अक्स में ढालती जा रही है। इसे कोई दृष्टि-सम्पन्न देख पाए या न देख पाए लेकिन एक ‘सूर गायक’ अपनी प्रज्ञाचक्षु से देख भी रहा है और उन्हें अपनी आवाज़ भी दे रहा है — एक ऐसी टेर, जिससे लोकगीत कहते हैं कि हमें अपना कण्ठ दे दो और निर्गुन कहते हैं कि हमें। हरिश्चंद्र की कविताएँ ऐसी आवाज़ों के समवेत स्वर हैं जिसमें एकदम बेआवाज़ ‘बादल छँटने की आवाज़’ भी शामिल है। इनमें हमारे समय की उद्दण्ड बर्बरता भी शरीक है और खिलखिलाहट भी, जिसमें किशोरवय को सेलीब्रेट करतीं, खुसुर-पुसुर, चुहल, चहचहाहट भरी कालेज जाती लड़कियाँ हैं तो कोई विघ्न-सन्तोषी एसिड की बोतल ख़रीदता घात लगाए युवक। इसीलिए अपने नतोन्नत पहाड़ों पर खिलते बुरूँश के फूलों से लेकर गंगा-जमुना के कछारों तक पसरी हरिश्चंद्र पाण्डेय की कविताएँ अपनी सौन्दर्य-दृष्टि, वस्तुबोध और अनुभव-जगत के जरिए तथाकथित मुख्यधारा से अलग कवि के काव्य-परिसर को और आगे तक देखने के लिए आमंत्रित करती हैं। वे दशकों के टुकड़ों में आमने-सामने वाले या प्रचलित मुहावरों के कवि नहीं। वे अन्ततः और पूर्णतः कवि है। सिर्फ़ कवि।
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