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अपना सुख अपने आदमी के साथ / केदारनाथ अग्रवाल

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नदी है
जो लबालब भरी है
घास है
जो ठसाठस हरी है
एक के पास दूसरी पड़ी है
संविधान में
आदमी नहीं जी रहा है
अपना सुख अपने आदमी के साथ
हवा जानती है
आसमान जानता है
जमीन जानती है

रचनाकाल: १३-०३-१९६८