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अपनी अना से बर-सर-ए-पैकार मैं ही था / कबीर अजमल

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अपनी अना से बर-सर-ए-पैकार मैं ही था
सच बोलने की धुन थी सर-ए-दार मैं ही था

साज़िश रची गई थी कुछ ऐसी मेरे खिलाफ
हर अंजुमन में बाइस-ए-आजार मैं ही था

सौ करतबों से ज़ख़्म लगाए गए मुझे
शायद के अपने अहद का शहकार मैं ही था

लम्हों की बाज़-गश्त में सदियों की गूँज थी
और आगही का मुजरिम-ए-इजहार मैं ही था

तहजीब की रगों से टपकते लहू में तर
दहलीज़ में पड़ा हुआ अखबार मैं ही था

‘अजमल’ सफर में साथ रही यूँ सऊबतें
जैसे के हर सज़ा का सज़ा-वार मैं ही था