भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी अपनी लोग यहाँ फ़रमाने लगते हैं / कृष्ण 'कुमार' प्रजापति
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:42, 8 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कृष्ण 'कुमार' प्रजापति |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अपनी अपनी लोग यहाँ फ़रमाने लगते हैं
क्या समझाएँ उनको, वो समझाने लगते हैं
गिर जाने पर हँस पड़ते हैं अपने लोग
आ जाते हैं दौड़ के जो अनजाने लगते हैं
मेरा दिल दीवाना चाहे ख़ुशियों के दो बोल
जब मिलते हैं आप तो रोने गाने लगते हैं
अपनी अपनी धुन में सारे बच्चे हैं मशगूल
अब तो अपने घर में हम बेगाने लगते हैं
सच्चाई ने झूठ का चोला ओढ़ लिया है
क़ौल सियासी लोगों के अफ़साने लगते हैं
मिलना जुलना बरसों तक जब हो जाता है बंद
चेहरों के आईने सब धुँधलाने लगते हैं
पर्वत जैसा सह लेते थे सारे दर्द ‘कुमार’
अब छोटी सी बातों पर घबराने लगते हैं