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अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए(ग़ज़ल) / अली सरदार जाफ़री

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ग़ज़ल५
(‘आतश' की ज़मीन में)


कभी खन्दाँ,<ref>प्रसन्न</ref> कभी गिरियाँ,<ref>उदास</ref> कभी रक़्साँ चलिए
दूर तक साथ तिरे, उम्रे-गुरेज़ाँ, चलिए

ज़ौके़-आराइशो-गुलकारिए-अश्के-ख़ूँ<ref>ख़ूँ के आँसुओं की सजावट का शौक</ref> से
कोई भी फ़स्ल हो, फ़िरदौस-ब-दामाँ चलिए

रसमे-देरिनःए-आलम<ref>संसार की पुरानी प्रथा</ref> को बदलने के लिए
रस्मे-देरीनःए-आलम से गुरेज़ाँ चलिए

आस्मानों से बरसता है अँधेरा कैसा
अपनी पल्कों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए

शोलः-ए-जाँ को हवा देती है ख़ुद बादे-समूम
शोलः-ए-जाँ की तरह चाक-गिरीबाँ चलिए

अक़्ल के नूर से दिल कीजिए अपना रौशन
दिल की राहों से सूए-मंज़िले-इन्साँ चलिए

गम नयी सुब्‌ह के तारे का बहुत है लेकिन
लेके अब परचमे-ख़ुर्शीदे ज़र-अफ़शाँ चलिए

सर-ब-कफ़ चलने की आदत में न फ़र्क़ आजाए
कूचःए-दार में सरमस्तो-ग़ज़लख़्वाँ चलिए

  

शब्दार्थ
<references/>