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अपनी बात / अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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अपनी यह तीसरी काव्य-कृति ‘अंगारों पर शबनम’ (ग़ज़ल संग्रह) आप सब के हाथों में सौंपते हुए मुझे जो असीमित ख़ुशी हो रही है, उसे शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं है । यह ईश्वर की महान कृपा और आप सब का आशीर्वाद ही है, जो मेरी काव्य-यात्रा इस पड़ाव तक आ पहुँची है ।

1999 में प्रकाशित मेरे ग़ज़ल संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’ एवं 2006 में प्रकाशित ग़ज़ल-गीत संग्रह ‘सुबह की दस्तक’ को आप सभी प्रबुद्ध पाठकों से जो उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुई हैं, उसी का शुभ परिणाम है कि मैं यह तीसरी काव्य-कृति लोकार्पित करने का साहस जुटा पा रहा हूँ ।

एक सौ एक ग़ज़लों के अपने इस नए ग़ज़ल-संग्रह को आप सब के पढ़ने योग्य बनाने के लिए मैंने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की है, फिर भी मैं यह दावा नहीं कर सकता कि यह काव्य-संग्रह आपकी उम्मीदों की कसौटी पर खरा उतरेगा । दरअस्ल स्वयं की सच्चाई और वास्तविकता को परखना किसी भी व्यक्ति के लिए बहुत ही कठिन होता है । महान शायर जिगर मुरादाबादी का एक शेर है-

“नहीं जाती कहाँ तक फ़िक्रे-इंसानी नहीं जाती
मगर अपनी हक़ीक़त आप पहचानी नहीं जाती”

इसलिए इन रचनाओं की हक़ीक़त पहचानने का काम तो आपको ही करना है । मेरा काम तो सिर्फ़ इतना था कि मैं इस कृति को आप तक पहुँचा दूँ और यह काम मैंने कर दिया है, आगे ज़िम्मेदारी आपकी ।

पिछले दो दशकों में मेरे निजी जीवन के उतार-चढ़ाव और चुनौतियों के साथ-साथ समय और समाज के उथल-पुथल की साक्षी हैं ये ग़ज़लें, जो हिन्दी-उर्दू मिश्रित आम हिन्दुस्तानी बोलचाल की भाषा में कही गई हैं । क्योंकि इस देश में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए यही भाषा मुझे उपयुक्त लगती है, भले ही साहित्यिक भाषा के रूप में हिन्दी-उर्दू के तथाकथित समीक्षक इसे स्वीकार न करते हों । दरअस्ल अनावश्यक भाषाई सजगता पाल कर प्रभाव के स्तर पर ग़ज़ल को कमज़ोर करना मुझे ठीक नहीं लगता । हाँ जहाँ तक भाषाई सजगता ग़ज़ल के प्रभाव में बाधा नहीं डालती, वहाँ तक मैं भाषा के साथ कोई उठापटक नहीं करता । अस्ल में मैंने ये ग़ज़लें स्वाभाविक हिन्दुस्तानी भाषा में कहने का प्रयास किया है और मुझे लगता है कि ये हिन्दी-उर्दू पाठकों को समान रूप से ग्राह्य होंगी।

आज के कठिन समय में साहित्यिक भूमिका का निर्वाह बहुत ही चुनौतीपूर्ण है । लगातार असंवेदनशील होते घोर भौतिकतावादी समाज को मनुजता का पाठ पढ़ाना ‘अंगारों पर शबनम’ रखने जैसा ही है, लेकिन
निराश होनेे की ज़रूरत नहीं है । परिस्थितियाँ चाहे कुछ भी हों, अगर इंसान हौसला रखे, उम्मीद का दामन न छोड़े और अपने मक़सद के लिए ईमानदारी से कोशिश करता रहे, तो एक न एक दिन सफलता मिलती ही मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं-

“है सुनिश्चित मिलेंगी हमें सिद्धियाँ
पूर्ण होने तो दो साधना बन्धुओ”

मुझे पूरा विश्वास है कि शबनम की ये नन्हीं-नन्हीं बूंदें अंगारों
 से जूझते हुए आखि़रकार अपने मक़सद में ज़रूर कामयाब होंगी-

‘दर्दों का दौर ख़त्म भी होगा यक़ीन रख
होते कहाँ हैं एक सी सूरत के चार दिन’

मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ महान गीतकार एवं ग़ज़लकार परम् श्रद्धेय डॉ. कुँअर बेचैन साहब का, प्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं ग़ज़लकार श्रद्धेय श्री माणिक वर्मा साहब का और प्रतिष्ठित कवि-साहित्यकार आदरणीय डॉ. देवव्रत जोशी जी का जिन्होंने अपने अमूल्य आशीर्वचन देकर मुझे एवं इस कृति को निश्चित रूप से धन्य कर दिया है ।

अयन प्रकाशन, नई दिल्ली के संचालक परम् आत्मीय श्री भूपाल सूद साहब ने इस कृति के प्रकाशन के लिए मुझे प्रेरित करने के साथ-साथ इसे अत्यन्त आकर्षक रूप में प्रकाशित भी किया, मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।

अन्त में मैं उन सभी आत्मीयों और मित्रों के प्रति भी अपना आभार व्यक्त करता हूँ, जिनसे इस कृति के प्रकाशन के लिए किसी न किसी रूप में प्रोत्साहन और सहयोग मिला है । बहुत-बहुत आभार-

‘हुआ सवेरा हमें आफ़ताब मिल ही गया
          अँधेरी शब को करारा जवाब मिल ही गया’

'-वीरेन्द्र खरे 'अकेला'