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"अपनी बात / वीरेन्द्र खरे अकेला" के अवतरणों में अंतर

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                         स्व. दुष्यन्त कुमार जी के ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ से प्रभावित होकर मैंने 1991 से ग़ज़लें कहना शुरू किया और आज तक कह रहा हूँ । इस संग्रह में 1991 से 1997 तक मेरे द्वारा कही गई ग़ज़लों में से वे ग़ज़लें हैं जो मुझे कुछ ठीक-ठाक लगती हैं और लगता है कि इन्हें दूसरों को भी पढ़वाया जा सकता है ।  
 
                         स्व. दुष्यन्त कुमार जी के ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ से प्रभावित होकर मैंने 1991 से ग़ज़लें कहना शुरू किया और आज तक कह रहा हूँ । इस संग्रह में 1991 से 1997 तक मेरे द्वारा कही गई ग़ज़लों में से वे ग़ज़लें हैं जो मुझे कुछ ठीक-ठाक लगती हैं और लगता है कि इन्हें दूसरों को भी पढ़वाया जा सकता है ।  
 
   
 
   
                         मैं अन्य विधाओं में भी थोड़ा बहुत गूद-गाद लेता हूँ किन्तु ग़ज़ल मेरी प्रिय विधा है, इसलिए क्योंकि वह सभी तरह की भावनाओं, विचारों, समस्याओं और विदू्रपताओं को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने में पूर्ण समर्थ है । वह बेचैनी, निराशा और घुटन की भीषण दोपहर के विरूद्ध खड़ा एक शामियाना है । वह न जी पाने के बीच जीने का एक प्रयास है । वह पीड़ा को रसमय बनाने का एक यंत्र है ।
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                         मैं अन्य विधाओं में भी थोड़ा बहुत गूद-गाद लेता हूँ किन्तु ग़ज़ल मेरी प्रिय विधा है, इसलिए क्योंकि वह सभी तरह की भावनाओं, विचारों, समस्याओं और विद्रूपताओं को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने में पूर्ण समर्थ है । वह बेचैनी, निराशा और घुटन की भीषण दोपहर के विरूद्ध खड़ा एक शामियाना है । वह न जी पाने के बीच जीने का एक प्रयास है । वह पीड़ा को रसमय बनाने का एक यंत्र है ।
 
   
 
   
 
'''दर्दों की धूप आखि़र अब क्या बिगाड़ लेगी'''
 
'''दर्दों की धूप आखि़र अब क्या बिगाड़ लेगी'''

18:25, 27 सितम्बर 2011 का अवतरण

                         अपनी बात / वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’
    
                        स्व. दुष्यन्त कुमार जी के ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ से प्रभावित होकर मैंने 1991 से ग़ज़लें कहना शुरू किया और आज तक कह रहा हूँ । इस संग्रह में 1991 से 1997 तक मेरे द्वारा कही गई ग़ज़लों में से वे ग़ज़लें हैं जो मुझे कुछ ठीक-ठाक लगती हैं और लगता है कि इन्हें दूसरों को भी पढ़वाया जा सकता है ।
 
                        मैं अन्य विधाओं में भी थोड़ा बहुत गूद-गाद लेता हूँ किन्तु ग़ज़ल मेरी प्रिय विधा है, इसलिए क्योंकि वह सभी तरह की भावनाओं, विचारों, समस्याओं और विद्रूपताओं को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने में पूर्ण समर्थ है । वह बेचैनी, निराशा और घुटन की भीषण दोपहर के विरूद्ध खड़ा एक शामियाना है । वह न जी पाने के बीच जीने का एक प्रयास है । वह पीड़ा को रसमय बनाने का एक यंत्र है ।
 
दर्दों की धूप आखि़र अब क्या बिगाड़ लेगी
हमको तो मिल गया है ग़ज़लों का शामियाना
 
 
                          मुझे लगता है मेरा यह प्रथम ग़ज़ल-संग्रह बहुत जल्दी आपके सामने आ गया है । जिन स्थितियों में मैं पिछले 5-6 सालों से जी रहा हूँ वे पुस्तक प्रकाशन की स्थितियाँ कदापि नहीं हैं, वरन विरोधी स्थितियाँ हैं । इसके बाद भी यह संग्रह आपके हाथ में है , तो इसे आप सब के आशीर्वाद और परम पिता परमात्मा की कृपा के अतिरिक्त और क्या कहा जाए ?
 
                        क्या आप सोच सकते हैं कि वह व्यक्ति जो महज 1000 रूपये मासिक के लिए दो-दो अशासकीय संस्थाओं को लगभग 9-10 घंटे का परिश्रम बेचने के लिए विवश है, और इस विवशता को तोड़ने के लिए अपना निजी धंधा जमाने के लिए दिन रात हाथ पैर मार रहा है, तथा सोच रहा है कि दुख की एक चौथाई रात ही शेष बची है, सब्र करो- पुस्तक छपवा सकता है ? शायद नहीं ।
 
                        क्या आप सोच सकते हैं कि वह व्यक्ति जो एक बड़ा भाई है और जो पिता के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर महसूस कर रहा है और इस ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए कठिन संघर्ष के दौर से गुज़र रहा है, पुस्तक छपवा सकता है ? शायद नहीं ।
 
                        मेरे भाई लिखना कठिन है , बहुत कठिन, किन्तु आज के युग में लिखा हुआ छपवाना लिखने से भी कई गुना अधिक कठिन है ।

छपने की सुविधा से वंचित, मंचों का भी साथ नहीं
आवारा ना भटकें तो मेरी कविताएँ जायें कहाँ
 
 
                        तमाम विपरीत स्थितियों के बावजूद वह यानी मैं यानी वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ पुस्तक छपवाने के लिए मरा जा रहा है क्यों ?
 
                        दरअसल कवि की रचनाएँ समाज की होती हैं और उनका समय पर समाज के सामने पहुंचना आवश्यक होता है, अन्यथा उनका मूल्य नष्ट होने लगता है और इस तरह पुस्तक छपवाना मात्र निजी स्वार्थ नहीं है, वह मात्र व्यक्तिगत कार्य नहीं है भले उसका स्वरूप व्यक्तिगत दिखता है । वह तो मूलतः सामाजिक कार्य है, वृहद् कर्तव्य है, एक अनिवार्यता है, उसे टाला जाना एक बड़ी लापरवाही है ।
 
                         यही चिंतन था जिससे प्रेरित होकर वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ने यानी मैंने तमाम विपरीत स्थितियों के बावजूद, कई व्यक्तिगत कार्यों को एक तरफ़ टिका कर परिवार के प्रति उद्दंडता और लापरवाही का आक्षेप झेलते हुए जनवरी ‘98’ से ‘शेष बची चौथाई रात’ ग़ज़ल संग्रह को छपवाने का दृढ़ निश्चय करते हुए प्रयास प्रारंभ कर दिए । इन प्रयासों को मेरे मित्रों एवं आत्मीयजनों (डॉ. बहादुर सिंह परमार, मौलाना हारून ‘अना’ क़ासमी, श्री अज़ीज़ रावी, श्री सुनील सवैया ‘दिलकश’, सुश्री प्रीता व्यास,श्री संजय खरे ‘संजू’, श्री सतीश अवस्थी, श्री आर. सी. चौरसिया ‘प्रशांत’, श्री अंजुल खरे, श्री संदीप गुप्त श्री रोहित खरे, श्री अभिराम पाठक, श्री अशोक त्रिपाठी, श्री नीरज साहू ‘विशाल’, श्री अजय त्रिपाठी ‘अग्रज’ श्री सुनील तिवारी और श्री इन्द्रपाल सिंह आदि) के सहयोग और सहानुभूति ने आशाजनक गति प्रदान की इन सब मित्रों का मैं हृदय से आभारी हूँ ।
 
                        मेरे दादा तुल्य गीत सम्राट श्रद्धेय श्री गोपाल दास ‘नीरज’ और प्रसिद्ध गीतकार विन्ध्यकोकिल श्री भैयालाल व्यास जी का भी मैं हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी अत्यधिक व्यस्तताओं के बावजूद मेरे लिए समय निकाला और क्रमशः कवर टिप्पणी तथा भूमिका के रूप में अपने आशीर्वचन पुस्तक को दिए ।
                       
                        स्वामी प्रणवानन्द पब्लिक ट्रस्ट छतरपुर के अध्यक्ष श्री शिवनारायण खरे जी एवं संतोष सिंह बुन्देला साहित्य परिषद् के विभिन्न पदाधिकारियों श्री यू. पी. सिंह, श्री देव सिंह, श्री आर सिंह, श्री आदित्य शर्मा ‘चेतन’, श्री अशोक रावत और श्री लव प्रताप सिंह आदि के प्रति मैं बहुत ही कृतज्ञ हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के प्रकाशन हेतु अपनी-अपनी संस्थाओं से अर्थिक सहयोग दिलाने के सफल प्रयास किए और पुस्तक-प्रकाशन के कार्य को काफी आसान बनाया ।
 
                        मैं अपने परिवार-जनों के प्रति भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मेरे कविता-कर्म के निर्वाह के कारण उत्पन्न असुविधाओं पर कभी ध्यान नहीं दिया वरन हर संभव सहयोग प्रदान किया ।
 
                        अन्त में मैं अयन प्रकाशन के कर्ता-धर्ता श्री भूपाल सूद और उनके परिवार-जनों के प्रति भी अपना आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने ‘शेष बची चौथाई रात’ के इस संस्करण को अत्यन्त आकर्षक रूप प्रदान करने के लिए अथम परिश्रम किया ।
 
                        कुल मिला कर तमाम विपरीत स्थितियों से जूझते हुए आपकी पुस्तक ‘शेष बची चौथाई रात’ अन्ततः आपके हाथों तक पहुंच गई है, यह प्रसन्नता का विषय है पहुंचती भी क्यों नहीं ? गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते हैं-
 
जो इच्छा करिहो मन माहीं
प्रभु प्रताप कछु दुर्लभ नाहीं
 
                                                 -वीरेन्द्र खरे‘अकेला’
                                                      21 जनवरी 1998
                                                        कमला कॉलोनी,
                                                        नया पन्ना नाका,
                                                        छतरपुर (म.प्र.)