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अपनी मज़बूरी सुनाने के लिए मज़बूर हैं / पृथ्वी पाल रैणा

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हाथ थामें जिनको कल चलना सिखाया
कर चुके वे पार सारी सरहदें
आज के इस दौर की रफ़तार में हम
लडख़ड़ाने के लिए मजबूर हैं
टिमटिमाती जिंदगी और चरमराती उम्र का
लम्हा- लम्हा तल्ख़ है इन बेमज़ा हालात में
दुश्मनी और दोस्ती सब एक जैसी
हम निभाने के लिए मजबूर हैं
क्या बताऐं किसके कारण
चारदीवारी गिरी
गिरती दीबारों का जिम्मा खुद पे अब
हम उठाने के लिए मजबूर हैं
चंद रोज़ा शेष जीवन के लिए
बहुत है इन बुझती आंखों में नमीं
दौरे आखिर में ये सारी रंजिशें
हम मिटाने के लिए मजबूर हैं
दूसरों के दर्द ढोते चुक गई
जि़ंदगी की हिकमतें ऐ दोस्तो
शेष है कुछ क़र्ज़ जिसको इस तरह
हम चुकाने के लिए मज़बूर हैं