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अपरिग्रह / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति

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एक सच्चा अपरिग्रही

मानव कब कोई हो पाया है.

अपने हर भाव में वह त्याग भाव बचा कर रखता है.

अपरिग्रह ,

अणुव्रतका श्रेष्ठ भाव का भोग्या ,

अतिशय श्रेष्ठ्य भोग्य,

अपने योग्य बचा लेता है.

शेष का त्याग ---अंततः इस भाव का सुखद अंश है.

तब अपरिग्रह कहाँ ?

अपरिग्रही होने की सात्विक मूर्छा

किसी राजा होने से कम नहीं.

सात्विक मादकता का मोह बड़ा भ्रामक है.

यह तामसी और राजसी मोह से भी विषम है.

पुण्य प्रभा का छल तोड़ना ही सबसे अधिक दुष्कर है.

अतः अपरिग्रह भाव का भोग ,

व्रत या त्याग नहीं,

आत्म वंचना है.

अतः अपरिग्रह का भाव ही न हो ,

वही ऋत अपरिग्रह है.