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अबोली रात / अनूप सेठी

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नन्हीं बच्ची नींद में बड़बड़ाती है
एक औरत हिचक हिचक रोती है
अंधेरा बहुत घना है

दीया जलता है
अँधेरे का वृत्त फैलता जाता है
दीवारों पर हिलती छायाएँ
सारे घर को ओट कर लेती हैं

अबोली है रात निर्वात
आँगन में नल है
जन्मजात जलहीना

अमरूद का पेड़ है
धुर चोटी तक आधा सूखा हुआ

पृथ्वी की देह में गड़े हैं
कटे हुए पेड़ बिजली के खँभे
झेल जेठ बरसात और पूस की रात
कई साल
खड़े खड़े झर गई उनकी छाल

अँधेरे आसमान में कोई बड़ा सा सूराख है

जहाँ अधसूखे अमरूद की टहनियां अकड़ती हैं
तड़-तड़ झड़ जाएँगी अभी
झरना था पत्तों को
वे मार खाए चेहरों की तरह सूजे हुए हैं

नन्हीं बच्ची करवट बदल सो गई है
औरत के रुदन की गूँज
फड़फड़ाती हुई अमरूद के ऊपर से
बूढ़े-नँगे बिजली के खँभों के पार ठहरी हुई है
                              2000