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अब जब हम मिलते हैं / पूजा कनुप्रिया

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किलोमीटर की धुन्ध में
ओझल हो गए मन से
कुछ अधिकार हमारे
खो गईं सफ़र में
चिन्ताएँ, फ़िक्रें, ख़याल सब
मिलते तो हैं हम मंज़िलों पर
लेकिन अब साँझा नहीं रहीं
मंज़िलें अपनी-अपनी हो गईं

अब जब हम मिलते हैं
पूछ लेते हैं हाल-चाल
घर-बार के
रिश्ते परिवार के

लेकिन अब
कहाँ पूछते हो तुम
और कहाँ कहती हूँ मैं
हाल मेरे मन के
अब जब हम मिलते हैं
निभाते हैं कुछ संसारिकता
निभाते हैं कुछ औपचारिकताएँ