भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब तक की यात्रा में / शलभ श्रीराम सिंह

Kavita Kosh से
गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:07, 5 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह |संग्रह= }} <Poem> जल कुम्भी गंगा मे...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जल कुम्भी गंगा में बह आई है!
यहाँ भला कैसे रह पाएगी हाय,
बंधे हुए जल में जो रह आई है!
जल कुम्भी...!

नौका परछाई को तट माने है
हर उठती हुई लहर को अक्सर
हवा चले हिलता पोखर जाने है
अपनावे पर यह विश्वास
फिर न कभी आ पाऊंगी शायद--
घाट-घाट कह आई है!
जल कुम्भी...!

बरखा की बूंद हो कि शबनम हो
पानी की उथल-पुथल
चाहे कुछ ज़्यादा हो या थोड़ी-सी कम हो
कभी नहीं तकती आकाश
इससे भी कहीं अधिक सुख-दुख वह
अब तक की यात्रा में सह आई है!
जल कुम्भी...!