भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब बच्चे, बच्चे नहीं रहे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब बच्चे,
बच्चे नहीं रहे
उनके बेरौनक चेहरों पर
पसरा नहीं है भोलापन
नहीं बिखरी दूधिया मुस्कान
आँखों में नहीं है
अचरज-भरी दुनिया
नहीं है रूठने-मनाने की लालसा
उनमें नहीं है-
चिड़िया के बच्चों-सी
चहचहाट
नहीं है-
बाबा के किस्से सुनने की उत्कण्ठा
उन्हें नहीं है है भरोसा
दादी की सीख पर
अब बच्चे, बच्चे नहीं रहे
बूढ़े हो गए हैं।
मोटे लैंस के पीछे हैं
उनकी बुझी-बुझी आँखें
आँखों में बुढ़ापे की छाया
उन्हें मुस्कान के लिए
फुर्सत नहीं है
उनके चारों तरफ बिखरी हैं किताबें
किताबों में ज्ञान का
भूसा भरा हुआ है।
वे रात-दिन
उस भूसे को चबा रहे हैं
उन्हें रूठने की फुर्सत नहीं
चहकने की कोशिश करने पर
सिप़फ़र् रुलाई फूट सकती है।
बाबा के किस्से, दादी की सीख
उनके लिए बेमानी हैं, बकवास हैं
बाबा की गोद में बैठना
उन्हें बचकाना लगता है
बस्तों के बोझ से लदे हुए बच्चे
झुकी कमर वाले बूढ़े बच्चे
भूसा चबाकर
माँ-बाप से बतियाते
बहस करते बच्चे
अब बच्चे नहीं रहे
बूढ़े हो गए हैं

घास को नहीं रौंदते बच्चे
अब तितलियों के पीछे
नहीं दौड़ते बच्चे
किसी पड़ोसी के आँगन में
दबे पाँव जाकर
जामुन या अमरूद नहीं तोड़ते बच्चे
बच्चे बहुत आज्ञाकारी हो गए हैं
घर से बाहर नजर नहीं आते बच्चे
अब सपनों में
कुदकते हैं, चौंकते हैं
सुबकते हैं बच्चे
न जाने कहाँ खो गए हैं
भोले बच्चे, नटखट बच्चे
चिड़ियों-से चहकते बच्चे
फूलों-से महकते बच्चे
तितलियों-से इधर-उधर
मँडराते बच्चे,
अब बच्चे नहीं रहे
बूढ़े हो गए हैं।
-0-
(26-06-1995)
अमृत सन्देश-दीपावली विशेषांक-95,आकाशवाणी अम्बिकापुर-6 जून 1999