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"अब वह नहीं आती / अनिल जनविजय" के अवतरणों में अंतर

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ढूँढ रही हो ज्यों मुझे भोर से
 
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'''1984 में रचित
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(1984)
 
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13:12, 17 नवम्बर 2010 का अवतरण

(रोज़ी वट्टा के लिए)

एक अरसा बीत गया
अब वह नहीं आती
उसकी याद आती है

तब वह आती थी
ख़ूबसूरत, नन्हे खरगोश की तरह
हड़बड़ाती हुई
प्रेम में बेचैन, तड़फड़ाती हुई

वह आती थी
अधसोई-सी, अधजागी-सी
थकी हुई-सी, भागी-सी
लापरवाह अपने चारों ओर से
ढूँढ रही हो ज्यों मुझे भोर से

प्रेम में मेरे डूबी थी ऐसे
समुद्र-सी उन्मत्त, पागल हो जैसे
आते ही मुझसे यूँ लिपट जाती थी
उमंग से मेरी फटने लगती छाती थी

कभी वह आती थी उदास, कँपकँपाती हुई
खामोश रहती थी, बात नहीं करती थी
कभी घर-भर में या बाहर कभी लान में
चक्कर काटती रहती थी मौन
मेरे मन को अपनी उदासी से दहलाती हुई

कभी वह घंटियों की तरह घनघनाती आती थी
बच्चों की तरह मुझे दुलराती थी
मेरे बालों में उँगलियाँ फिराती थी
मेरे माथे पर, नाक पर, गालों पर, होठों पर
अपने ऊष्म, गर्म चुम्बन चिपकाती थी
मेरी मूँछों को, पलकों को, भौहों को, कानों को
नन्ही, गोरी, पतली उँगलियों से सहलाती थी
बारिश की रिमझिम-सा स्नेह बरसाती थी

वह आती थी
अब नहीं आती
उसकी याद आती है

(1984)