भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब सुनो तुम / सुभाष राय

300 bytes removed, 16:29, 26 जुलाई 2019
{{KKRachna
|रचनाकार=सुभाष राय
|अनुवादक=|संग्रह= सलीब पर सच / सुभाष राय}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
सुबह का सूरजतुम्हारे भाल पर उगा रहता है अक्सर सुबह का सूरज मेरे ह्रदय हृदय तक उजास किये किए हुए  मेरी सबसे सुन्दररचना भी कमजोर कमज़ोर लगने लगती है जब देखता हूँ तुम्हें सम्पूर्णता में दिए दिये की तरह जलते तुम्हारे रक्ताभ नाख़ूनदो पंखडियों पँखड़ियों जैसे अधरकाले आसमान पर लाल नदी बहती देखता हूँ मैं हुई सचमुच एक पूरा आकाश होता है तुम्हारे होने में जिसमें बिना पंख पँख के भी उड़ना संभव सम्भव हैजिसमें उड़कर भी उड़ान होती ही नहीं क्योंकि चाहे जितनी दूरचला जाऊं जाऊँ किसी भी ओर पर होता वहीँ हूँ, जहाँ से भरी थी उड़ान तुम नहीं होती तोअपने भीतर की चिंगारी से जलकर नष्ट हो गया होता बह गया होता दहक करतुम चट्टान के बंद कटोरे में संभाल सम्भाल कररखती हो मुझेखुद ख़ुद सहती हुई मेरा अनहद उत्तापजलकर भी शांतशान्त रहती हो निरंतर निरन्तर जो बंधता बन्धता नहीं कभी भी, कहीं भीवह जाने कैसे बंध गयाकोमल कमल-नाल से जो अनंत अनन्त बाधाओं के आगे भीरुकता नहीं, झुकता नहींकहीं भी , ठहरता नहींवह फूलों की घाटी मेंआकर भूल गया चलना भूल गया कि कोई और भीमंजिल मँज़िल है मधु के अलावा सुन रही हो तुमया सो गयी गईं सुनते-सुनतेपहले तुम कहती थी थीं, मैं सो जाता था अब मैं कह रहा हूँपर , तुम सो चुकी हो उठो, जागो और सुनो , मुझे आगे भी जाना है
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,098
edits