भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब / आशुतोष दुबे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दिनों से मेरी क्षमा-याचिका मेरे पास लंबित थी
आखिर ऊबकर मैंने उसे खारिज कर दिया.
अब किसी भी सुबह यह धुकपुकी खामोश हो सकती है
कि मैं अपने इंतज़ार में हूँ...