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अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी' / परिचय

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मैं जर्मनी में बसा अप्रवासी भारतीय हूँ। कंप्यूटर सोर्स कोड लिखना पेशा है और हिन्दी में लिखना शौक।

मैं बिहार के मधुबनी जिले में जीवछ नदी के पास एक छोटे से खुबसूरत और हरे-भरे गावं सीमा से हूँ। मेरा जन्म मेरे ननिहाल गंधबाड़ी में हुआ था जो की मधुबनी में ही है, पंडौल के निकट। मुझे बताया गया कि अस्पताल जाते वक़्त रास्ते में ही बैलगाड़ी में मेरा जन्म हो गया, गाँव में अस्पताल नहीं था। बहुत लोग ये सुन कर हँसते हैं, पर ये सत्य है। हालाँकि हास्यास्पद बात ये है कि 3 दशक से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी वहा कुछ जयादा बदलाव नहीं आया है। आज 30 वर्षों के बाद भी क्या मेरे गाँव में मूलभूत सुविधायों में परिवर्तन आया है? सोचने का विषय है। ये हालत लगभग हर गाँव की है।

बाबा खेतिहर थे, इलाके में नाम था। शायद कृषक के कठोर जीवन से सबक लेकर, उन्होंने अपने बच्चों को उन्होंने ख़ूब पढाया। पिताजी कि नौकरी लगी और हम 1980 के आसपास समस्तीपुर आ गए। पर हर छोटे बड़े त्यौहार जैसे मकड़ संक्रांति, होली, चौठ चन्द्र, अनंत पूजा, दशहरा, कोजगरा, दीवाली, छठ, छुट्टिया, शादी, मुंडन, उपनयन में हम गाँव जाते रहे। फिर पिताजी का तबादला पटना हो गया। जैसे-जैसे गाँव से दूरी बढ़ती हमारा गाँव जाना धीरे-धीरे कम होता गया।

पटना के मिलर उच्च विद्यालय से मेट्रिक किया फिर आई-आई टी और बी आई टी की तय्यारी में वर्षों तक लगा रहा किन्तु सफलता हाथ नहीं लगी। बहुत ठोकरे खाई। 2000 में एक किताब पढ़ी शिव खेरा की, "यू कैन विन"। किताब का पहला पृष्ठ मन में बैठ गया "गुब्बारे का बाहर का रंग नहीं, उसके अंदर की बात उसको ऊपर ले जाती है"। अच्छी किताब है, जब मौका मिले ज़रूर पढ़िए। मैनेजमेंट में स्नातकोत्तर डिप्लोमा ली, छोटी मोटी नौकरी की, फिर बंगलोर आ गया। नौकरी के लिए बैंगलोर की गलियों की ख़ाक छानी और धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया और आज ठीक ठाक स्थिति में हूँ एक आई टी प्रोफेसनल के रूप में। बैंगलोर का आभारी हूँ और सदा रहूंगा।

नौकरी ने आधी दुनिया देखने का मौका दिया, अमेरिका, मलेसिया, ताइवान और यूरोप। मेनेजर बुला के पूछते ऑनसाईट जाओगे, कोई समस्या तो नहीं है। मैं हमेशा ये सोचता कि जब घर में नहीं हूँ तो दुनिया के किसी भी कोने में हूँ क्या फ़र्क़ पड़ता है, चलो फिर। आज कल जर्मनी में हूँ और जब भी मौका मिलता है निकल पड़ता हू यूरोप कि सैर पर।

माँ इलाहाबाद में पली-बढी थी, हिन्दी में लिखने का शौक था और काफ़ी अच्छा लिखती थी। हिन्दी की चलती फिरती शब्दकोश थीं वो, मेरी हिन्दी गयी गुजरी है, हिंगलिश का आदि हो गया हूँ। अक्सर उन्हें लिखते देखता था, कहानी, कविताये। सो लिखने का शौक मुझे विरासत में मिला है। शायद पांचवे या छठे कक्षा में था और मैंने एक व्यंग लिखी थी, मेरी पहली कृति। माँ हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयी थीं, बोली अच्छा है, लिखते रहो। वह कहानी नहीं है मेरे पास, शायद भूल से सनापपरी या कबाड़ी वाले को दे दिया होगा। हालाँकि आधा सीधा याद प्रसंग है, कोशिश करूँगा फिर से लिखने की।

किन्तु दुनिया में कही भी हूँ, गांव-देस कि याद हमेशा आती है। अपने गाँव सीमा में बसना चाहता हूँ। थोडा स्वार्थी और आराम तलब हो गया हूँ इसलिए आज के सीमा में नहीं बल्कि उस सीमा में बसना चाहता हूँ जहा निरंतर बिजली हो, द्रुत इन्टरनेट सुविधा हो, प्रचुर नौकरिया हो, अच्छे अस्पताल हों, विद्यालय हों, सड़के हों, सभी स्वस्थ हों, समृद्ध हों। ऐसी कल्पना भारत के हर गाँव के लिए है। और ऐसा मुश्किल नहीं है क्योंकि मैं ये बाते जर्मनी में एक छोटे से गाँव में बैठ कर लिख रहा हूँ। और आशा करता हूँ कि ये अपने जीवन में देख सकूँगा। और उन सपनों को साकार करने के लिए बिहार रीभाईभल फोरम (http: / / revive-bihar. blogspot. com) के माध्यम से प्रयत्नशील हूँ।