भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अमृतसर / अनूप सेठी

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:56, 22 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप सेठी }} <poem> मैं अमृतसर आना चाहता हूँ यूनिवर्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मैं अमृतसर आना चाहता हूँ
यूनिवर्सिटी जाना चाहता हूँ

कैफे की कुर्सियों पर धंसकर चुपचाप
बाहर लॉन में बैठना चाहता हूं
खालसा कॉलेज से होते हुए पुतली घर जाना चाहता हूँ
बहुत रात को मिल के बाहर
दुकान से चाय पीकर हॉस्टल लौटना चाहता हूँ

कैफे की खिड़कियों के कांच टूटे हुए हैं
चेहरे दोफाड़ नज़र आते हैं
लॉन की दूब पर पैर रखना मुश्किल है
लहू काला पड़ गया है पर सूखा नहीं है अभी
दूब चिपक गई है जगह जगह
मैदान में मुर्दनगी छाई है
खालसा कॉलेज की बुर्जियों के कँधे झुके पड़े हैं
कबूतर कोईनहीं है अब
घड़ियाल कबसे रुका पड़ा है
सुनसान है रास्ता
मिल का भोंपू बजता है अभी भी
चाय की दुकान अब नहीं है
हॉस्टल भी कब का सो गया है

अपने वक्त के तमाम हमदर्द दोस्तो
दोपहर की टूटी खिड़कियों
शाम की चिपकती धूप
चाय की बँद दुकान और
रात के सोए हॉस्टल
इन सब के सामने जाना चाहता हूं

कब के रुके हुए हैं आधी रात के अंधेरे
उनके खिलाफ मैं खड़ा होना चाहता हूं
मैं अमृतसर आना चाहता हूं|

                    (1988)