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अल्जाइमर / गीता शर्मा बित्थारिया

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आज कल
बड़ी तेजी से
अपनी जद में
ले रही है एक
अजीब सी बीमारी
भूलने की
लोग अक्सर
भूलने लगे हैं
इन दिनों
"मानवीय सरोकार
का सौंदर्य"

वो भूलने लगे हैं
किसी से किया गया
प्रतीक्षित प्रेम
किसी की सौंपी
अनछुई सी प्रीत
किसी से किये
आजीवन वादे
किसी को दिखाए
सुनहरे स्वप्न
भूलने लगे हैं वो
सहज भाव से
उनको भी
जो थे बेहद
करीब कभी

बीमार लोग
भूलने लगे हैं
वो भावनाएं
वो संवेदनाएं
वो अपनापन
वो गरमाहट
वो आंखों की नमी
वो खिली हुई हंसी
जो "मूलभूत शर्त" है
मनुष्य होने की
और शायद
"पहली और आखिरी" भी

कुछ लोग तो
भूल चुके है मनुष्यता
तो कुछ तो
ये तक भूले है
की वो मनुष्य हैं
इतना कुछ
भूलकर
अपने दायरे में
सिमटे सिकुड़े
स्वराथ साधे लोग
कितना
"यंत्रवत सा
चल रहा
जीवन "
जिए रहे हैं

हांफते हुए
अस्पताल की सीढी
चढ़ता हुआ कोई
जो सब कुछ भूल चुके
अपने प्रियतम से
रोज करता है
एक तरफा
मुलाकात
बिना नागा
हाथ थाम कर
करता है उससे
कल फिर
आने का वादा
जिसे याद नहीं है
कि कौन है वो
शायद इन्हीं लम्हों ने
अभी तक बचा रखा है
मनुष्य को पूरी तरह
यंत्र में बदल जाने से

कुछ लोग जो बच गए हैं
इस बीमारी
की जद में आने से
वो आज भी बन रहे हैं
किसी डूबतका तिनके सा सहारा
किसी के होठों पर खिली खोई हंसी
किसी बुझते दीये का मद्धम प्रकाश
किसी झरे फूल की भीनी सुगंध
किसी भटके की सीधी राह
किसी प्रेम की सुखद परिणिति
किसी के मौन के अनुवाद
उन्हें याद है
"प्राथमिक शर्त"
ऐसी ही लोगों ने
थाम रखी है
पृथ्वी की घूमती धुरी