भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अस्मिता / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:51, 22 जुलाई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


१.
प्राण का धर्म है साहित्य व्यवसाय नहीं
शुद्ध व्यक्तित्व का विभास, सम्प्रदाय नहीं
मोम-सा आप जलो तो प्रकाश फैलेगा
सिद्धि का और यहाँ दूसरा उपाय नहीं
२.
संघ कोई न सभा-मंच, सुहृद्-जाल नहीं
शिष्य, अनुशिष्य  नहीं, फूलभरे थाल नहीं
गा रहा हूँ मैं, जहाँ एक न सुननेवाला
सुर नहीं, साज़ नहीं, छंद नहीं, ताल नहीं
३.
साज़ कोई कहीं न है आलाप
न सभासद, न तो मृदंग, न थाप
निष्प्रतिध्वनि मरणपुरी है यह
गा रहा आप, सुन रहा हूँ आप
४.
मैंने तो यही योग साधा है
अपने को कहीं नहीं बाँधा है
आधा तो बिखर गया सजने में
राग अवशिष्ट अभी आधा है
५.
एक मन विमुग्ध रहा सपनों के मोद में
एक मन भटकता रहा पथ के विनोद में
अर्थ और काम में अधीर फिरा मन एक
पर था निश्चिन्त एक मन तेरी गोद में
६.
काँटों को फूल रजता को रजत मानता
हार-हारकर भी नये युद्ध सदा ठानता
माना मन एक चूर-चूर पड़ा धरती पर
किन्तु एक मन है जो पराजय न जानता
७.
अधलिखे गीत, कुछ मिटे-से चित्र
मैं यही, और यही  मेरा, मित्र!
शब्द दो चार सुवासित करने
आयु भर का निचोड़ डाला इत्र
८.
शर-वृष्टि सतत काल की सिर पर होती
रथ पंक-ग्रसित, वेदना गुरुतर होती
नि:शस्त्र खडा कर्ण-सा समर में मैं
इस हार पे सौ जीत निछावर होती
९.
यह भास-कालिदास की व्यथा से बड़ी
तुलसी की जलन सामने इसके फुलझड़ी
अजुन मैं कुरुक्षेत्र में बिना रथ का
गांडीव नहीं, हाथ में जिसके हथकड़ी
१०.
सिसिफस-सा दिन की शिला को मैं ढकेल कर
चोटी तक जभी पहुँचाता कष्ट झेलकर
लुढ़क वहीं की वहीं आती वह प्रात को
सोता मैं निरर्थ नित्य खेल यही खेलकर
१०.
तिनके-सा  आँधी में तनकर ढह गया हूँ मैं
सागर के ज्वार-सा उफनकर बह गया हूँ मैं
बनना तो चाहा था विजय-स्तम्भ वाणी का
दंभ का समाधि-स्थल बन कर रह गया हूँ मैं
११.
कितने सुख-सपनों को जोड़कर बनाया है
यश-वैभव सबसे मुँह मोड़कर बनाया है
काल के पटल पर यह ताजमहल गीतों का 
मैंने निज को ही तोड़-तोड़कर बनाया है  
१२.
एक फूल लपटों से निकालकर लाया हूँ
एक दीप आँधी में सँभालकर लाया हूँ
दग्ध मरु-प्रांतर में एक सुनहला शाद्वल
नाव एक भँवर से उछालकर लाया हूँ
१३.
तुम पियो अमृत, तुम्हें दोष नहीं
पी सकूँ गरल, आशुतोष नहीं
सिन्धु मथ रहे अंग श्लथ जिसके
वासुकी बना, मुझे होश नहीं
१४.
सुकरात की तरह उसे जीना आ जाय
हँस-हँसके घूँट जहर का पीना आ जाय
पगुराती हुई महिष-मंडली के बीच
कोई जो लिए काव्य की वीणा आ जाय
१५.
फूल थे, पर नहीं खिलने के लिए आये थे
अनदिखे, डाल पर हिलने के लिए आये थे
और ही थे जो दुलारे  गये, पूजे भी गए
हम तो बस धूल में मिलने के लिए आये थे
१६,
आयु नि:शेष हुई प्रीति की प्रतीक्षा में
अधलिखे पृष्ठ रहे विश्व की परीक्षा में
कवि न बना, न सही, काव्य बन गया हूँ मैं
स्वयं को आज दिए जा रहा समीक्षा में
१७.
एक होकर अनेक दीखता है
क्या कहूँ, कौन वास्तविकता है!
मैं न लिख रहा काव्य को अपने
काव्य मेरा मुझे ही लिखता है
१८.
मेरा सहयात्री यह अति ही विचित्र है
जान सका मैं न इसे, शत्रु है कि मित्र है
मेरे हर कार्य में विरुद्ध सदा मुझसे ही  
उलट कर टाँगा हुआ मेरा एक चित्र है
१९.
दो शक्तियाँ विरोधी मेरे दोनों ओर
विपरीत दिशाओं में खींचती हैं डोर
मैं बीच में टँगा हुआ त्रिशंकु-सदृश
छू रहा भू का कभी नभ का छोर
२०.
बिद्ध शर से अपंख बाज हूँ मैं
अनसुना, अनकहा, अकाज हूँ मैं
त्यक्त, नि:शक्त, बीच सागर का
भग्न जलता हुआ जहाज हूँ मैं  
२१.
हर दिशा-द्वार जुड़ा पाता हूँ
साथ पलभर न छुड़ा पाता हूँ
भाग्य पीछे जयंत के शर-सा
मैं जिधर उड़ा-उड़ा जाता हूँ
२२.
भेड़िये, रीछ और चीते हैं
जो सदा मनुज-रक्त पीते हैं
इस बयाबान घोर वन में हम
क्या कहें किस प्रकार जीते हैं!
२३.
मैं किनारे से अड़ा था कि किनारा रूठा
मैं सहारे को बढ़ा था कि सहारा छूटा
भाग्य यह मेरा पहुँचता गया पहले मुझसे
मैं सितारे पे चढ़ा था कि सितारा टूटा
२४.
जीत होती नहीं भलाई की
नींव हिलती नहीं बुराई की
न्याय का ढोल पीटनेवाले!
क्यों भला व्यर्थ जग-हँसाई की
२५.
एक क्षण फूल-सा निखरने दो
एक क्षण धूल में बिखरने दो
प्यार यह खूब, कभी मुँह चूमो
और असहाय कभी मरने दो
२६.
तड़ित-प्रवाह कि टूटा हुआ तारा, जीवन
ओस की बूँद, बिखरता हुआ पारा, जीवन
मैं इसे छू भी न पाता हूँ, पकड़ लूँ कैसे!
अन्य का है, न तो मेरा न तुम्हारा, जीवन
२७.
धार में है जो उन्हें दूर किनारा, जीवन
जो किनारे से लगे है उन्हें धारा, जीवन
एक मृग-तृष्णा जो पल भर भी न देती है विराम
एक परिणाम-रहित दौड़ है सारा जीवन
२८.
झूठी मृग-तृष्णा में भटक रहा रीता 
होठों से पात्र जो लगा है, क्यों न पीता!
क्षण-क्षण का जीवन ही जीवन का सुख है 
मधु तो मधु ही होगा, कड़ुआ क्या तीता!
२९.
घेरती गयी है मुझे लौहमयी कारा   
छिद्र नहीं क्षुद्र भी प्रकाश का सहारा
ठोस अंधकार, चौमुखी शिला ज्यों मन भर
चाँद बड़ी बात यहाँ एक भी न तारा
३०.
फूल बोला --'वसंत-श्री हूँ मैं'
कोकिला ने कहा, --'बड़ी हूँ मैं'
धूल पतझड़ की उड़ी इठलाती-- 
'देख, सब ओर उड़ रही हूँ मैं' 
३१.
जीवन का देख महाशोक, काँप जाता हूँ
सोच, मुझे काल देगा रोक, काँप जाता हूँ
आते ही विचार किन्तु, अंश हूँ अनंतता का
तीन ही पगों में तीन लोक नाप जाता हूँ
३२.
किसी ने मोम के पुतलों का एक खेल किया
बना-बनाके उन्हें आग में ढकेल दिया
जिन्हें गुलाब की पँखुरी  से रगड़ लगती थी
उन्होंने शीश पर लकड़ों का बोझ झेल लिया